Homeइन फोकसआलेखजेलकर्मियों की स्थिति बत्तीस दातों बीच एक जीभ जैसी...... !

जेलकर्मियों की स्थिति बत्तीस दातों बीच एक जीभ जैसी…… !

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गणतंत्र भारत एक प्रयोगधर्मी पोर्टल है। समाज के विभिन्न वर्गों के लब्ध-प्रतिष्ठित अनुभवी नायकों का लाभ हमारे पाठकों को मिल सके, इसके लिए लगातार प्रयास जारी रहता है। इसी क्रम में इस मंच पर सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी आर.के चतुर्वेदी से जेल एवं पुलिस सुधार या विभिन्न घटनाओं के दूसरे आयामों को समझने का प्रयास किया जा रहा है। इस क्रम की शुरुआत पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में हुई घटनाओँ से संदर्भ लेते हुए उनकी टिप्पणी से की जा रही है।  

लखनऊ ( गणतंत्र भारत के लिए आर.के. चतुर्वेदी ):  पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की रायबरेली, प्रतापगढ़, देवरिया और बरेली जेलों में हुई घटनाओं के बारे में सुना। बहुत हो-हल्ला मचा कि जेलों में बहुत अव्यवस्था है, भ्रष्टाचार है, ऊपर से नीचे तक सब अक्षम हैं। जेलों की कार्यप्रणाली और व्यवस्था को सही ढंग से नहीं समझने वालों से ऐसी ही दलीलों की अपेक्षा की जा सकती थी। लेकिन जरूरी था तस्वीर के उस बदरंग पहलू को भी समझना जिस पर आमतौर पर शायद ही कभी चर्चा होती हो। सवाल है कि क्या जेलों में अव्यवस्था के लिए सिर्फ जेलकर्मी ही जिम्मेदार हैं।

मुझे, दरअसल संयोगवश, पुलिस के अलावा जेल विभाग में भी सेवा का मौक़ा मिला है। शुरुआत ही प्रदेश की सबसे कठिन मानी जाने वाली नैनी जेल के अपर कारागार अधीक्षक पद से हुई। जिला कारागार अधीक्षक के पद पर चयन के बाद जेल ट्रेनिंग स्कूल लखनऊ में व्यावहारिक प्रशिक्षण और उसके बाद क़रीब दो वर्षों की मेरी जेल सेवा नैनी की ही रहने के कारण मेरे लिए जेल का मतलब नैनी ही रहा।

नैनी सेन्ट्रल जेल का चरित्र प्रदेश की अन्य जेलों से थोड़ा हट कर है। ये एकमात्र सेन्ट्रल जेल है जो अपने में जिला जेल को भी समेटे हुए है। इसमें सजायाफ्ता और विचाराधीन बन्दी एक साथ रखे जाते हैं जो सामान्यतया अन्य जेलों में नहीं होता। जब मैं नैनी जेल में सेवारत था उस समय इस जेल में दुर्दान्त अपराधियों व तमाम चर्चित चेहरों की भरमार थी। इनमें चार्ल्स शोभराज, गया कुर्मी, दिहुली कान्ड के राधे, सन्तोषा, बिहार का कुख्यात बीर बहादुर सिंह महोबिया, गोरखपुर के ओमप्रकाश पासवान व रामप्रवेश सिंह, करवरिया बंधु, अतीक अहमद, चाँद बाबा, सफ़दर रजा, मन्नी पासी (इसका एक भाई पड़ोसी राज्य में दबंग व सफल आई पी एस अधिकारी था), 1984 में सिख विरोधी दंगों के बाद रामगढ़ में सिख रेजीमेंटल सेंटर में हुए सैनिक विद्रोह के 100 से अधिक सज़ा पाए फ़ौजी आदि बहुत सारे अलग-अलग तरह के अपराघी व्यक्तित्व भरे पडे थे। उस समय नैनी जेल अपने कठोर अनुशासन, कृषि व औद्योगिक उत्पादन, स्वच्छता व सुन्दरीकरण, जेल सप्ताह में होने वाली खेलकूद व सांस्कृतिक गतिविधियों की श्रेष्ठता के लिए जाना जाता था। इसका पूरा व एकमात्र श्रेय तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक रहे स्व. राधेश्याम त्रिपाठी को जाता है। लगभग तीन वर्षों की ये सेवा विविधताओं से भरी थी। बहुत सी बातें सीखीं, अनुभव लिए, क़िस्से- कहानियों की पूरी एक श्रृंखला है जिसमें फांसी तक कराने का अनुभव शामिल है।

लौटते हैं मूल मुद्दे पर, कि क्या जेलों की अव्यवस्था के लिए दोषी केवल जेलकर्मी ही हैं ?  मेरा मत है, बिलकुल नहीं। जेलकर्मी की स्थिति बत्तीस दांतों के बीच फंसी जीभ की तरह होती है। चौबीस घंटे अपराधियों के बीच रहना, उन पर व उनके पैरोकारों पर निषेध रखना और सुरक्षा के नाम पर बाबा आदम के ज़माने की ना चलने वाली चार- पांच राइफ़ल वाली गेट की गार्द। अब शायद कुछ रिवाल्वर भी मिल गई हैं। असुरक्षित जेल लाइन व गिरते-पड़ते आवास। इन अपराधियों के मददगार और पैरोकार भी एक से एक होते हैं। नामचीन एडवोकेट, हर श्रेणी के राजनेता, बाहर बैठे इनके गुर्गे और इनके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार एक संरक्षक समूह।

जेलें आपराधिक न्याय व्यवस्था की एक कड़ी मात्र हैं। जिले में ज़िलाधिकारी इसका प्रमुख माना जाता है जो पदेन डीआईजी जेल भी होता है। न्यायपालिका व पुलिस इसके अंग हैं। सीजेएम को जेल में बन्द विचाराधीन बन्दियों का कस्टोडियन माना जाता है। सवाल ये है कि कितने ज़िलाधिकारी और सीजएम अपने दायित्वों का सही से निर्वहन कर रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि अधिकांश ज़िलाधिकारियों को अपने इस दायित्व से कोई मतलब ही नहीं होता और न्यायपालिका के लिए बंदी का हित सर्वोच्च होता है। वो वकीलों के दबाव में रहती है और पुलिस वैसे भी अति व्यस्त है। कुल मिलाकर किसी भी तरह के संरक्षण के अभाव में जेलकर्मी के पास दो ही विकल्प है या तो वो हालात के आगे समर्पण कर दे या फिर वो घटनाओं के खिलाफ स्टैंड ले। ढेरों ऐसे उदाहरण हैं जब जेलकर्मियों पर अपराधियों के विरुद्ध स्टैन्ड लेने पर जानलेवा हमले हुए या उनकी हत्या कर दी गईं। लखनऊ के जेल अधीक्षक आर के तिवारी,  मेरठ में जेलर नरेन्द्र त्रिपाठी, जेलर गौतम, प्रतापगढ़ जेल में हेड वार्डन वाराणसी में जेलर सूर्यमणि चौबे और ना जाने कितने नाम हैं, इस सूची में। पर इन घटनाओं पर कहीं कोई हलचल नही हुई और ना ही कोई केस सन्तोषजनक तरीक़े से वर्कआउट हुआ।

एक और महत्वपूर्ण बिन्दु, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए वो ये कि हत्याएं पुलिसकर्मियों की भी होती हैं पर शायद ही किसी पुलिसकर्मी की हत्या योजनाबद्ध तरीक़े से हुई हो। अधिकतर घटनाएं आकस्मिक रही हैं। जबकि जेलकर्मियों की हत्याएं या उन पर जानलेवा हमले सोची समझी साजिश के साथ ज़ीरो फेल्योर के सिद्धान्त पर हुए। पुलिसकर्मियों के साथ हुई घटनाएं सुर्ख़ियां बन जाती हैं। वर्कआउट करना, परिवार को क्षतिपूर्ति देना प्राथमिकता होता है जबकि साजिश के तहत मारे गए जेलकर्मी  की हत्या पर कार्रवाई औपचारिकता मात्र बन कर रह जाती है। इन स्थितियों में जेल में बन्द, व्यवस्था पर हावी अपराधियों के समक्ष समर्पण ही जेलकर्मियों की नियति बन जाती है।

आगे की पोस्ट में…..जेलों में होने वाली घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार है, विषय पर विचार साझा करूंगा।  

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