नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए विक्रम कपूर): हिंदुस्तान विश्व के उन कुछ देशों में शुमार है जहां का लगभग प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में नेता है। पान की टपरी से लेकर फाइव स्टार रेस्तरा में चर्चा का एक विषय अवश्य होता, वो है राजनीति। बगैर राजनीति पर चर्चा हुए, चर्चा अधूरी मानी जाती है। मगर राजनीतिक रूप से अत्यधिक जागरूक देश में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों आपस में पूरक की भूमिका में न होकर एक प्रतिस्पर्धी की भूमिका में खड़े नजर आते हैं। ये इस देश की त्रासदी भी है कि वास्तविक और आवश्यक मुद्दों पर भी विपक्ष सरकार का प्रतिरोध करता है।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सत्ताधारी पार्टी अपने द्वारा बनाई गई नीतियों के अच्छे नतीजों का यकीन दिलाने में वाहियात तर्कों और तथ्यों का इस्तेमाल करती है। जिस तरह मुल्क की बेहतरी के लिए लिए एक मजबूत सरकार की आवश्यकता होती है, उसी तरह प्रचंड बहुमत के नशे में किसी सरकार को तानाशाह बनने से रोकने के लिए एक मजबूत विपक्ष भी जनतंत्र की सफलता की एक आवश्यक शर्त है। मजबूत विपक्ष न होने पर सत्तारूढ़ दल अनर्गल और विवेकहीन निर्णय भी ले सकता है। मगर आज की वास्तविकता ये है कि विपक्ष भी नागरिकों को वैकल्पिक व्यवस्था देने का यकीन दिलाने में पूरी तरह असफल ही रहा है।
विपक्षी दल, सरकार द्वारा बनाए गए नियम कानूनों और नीतियों का संसद से लेकर सड़क तक विरोध और संसदीय प्रक्रिया में लगातार गतिरोध पैदा करके सरकार को कोई भी वास्तविक और सकारात्मक कार्य करने से रोकने में जी जान से जुटे हैं। ये किसी इकलौते विपक्षी दल की बात नहीं है। कुल मिला कर विपक्ष इस बात पर केंद्रित होकर कार्य करता है कि सत्ताधारी दल को जनता की नजर से कैसे गिराया जाए। विपक्ष तमाम ऐसे नियम कानून और मुद्दों का विरोध करता नजर आता है जिनकी अपनी पार्टी की सरकार में महत्ता गिना रहा था।
यही तर्क सत्ताधादी दल पर लागू होता है। विपक्ष में रहते हुए भारतीय जनता पार्टी ने कई उन नीतियों का विरोध किया था जिसे सरकार में आते ही उसने सबसे पहले वैधानिकता दी। पार्टी का तर्क विपक्ष में रहते हुए कुछ और था और सत्ता पर काबिज होते ही कुछ और हो गया।
आज सड़क से लेकर संसद तक कृषि कानूनों का विरोध करने वाली कांग्रेस पार्टी के पिछले लोकसभा के चुनावी घोषणा पत्र में किसानों से वादा किया गया था कि एपीएमसी एक्ट को रद्द करने और किसानों की उपज की खरीद के लिए अतिरिक्त व्यवस्था की जाएगी, जैसा कि नए कानून में प्रस्तावित है। मगर कांग्रेस जोर-शोर से इस कानून का विरोध कर रही है। इसी तरह, सत्ता पर काबिज होने से पहले भारतीय जनता पार्टी जिस जोर-शोर से एफडीआई कानून का विरोध कर रही थी उसी जोर-शोर से सरकार में आने पर सौ फीसदी एफडीआई का कानून भी पास किया।
केवल कानून ही नहीं सरकार के हर समझौते और वास्तविक मुद्दों का विरोध करना मानो जैसे विपक्ष का एकमात्र कर्तव्य बन चुका है। विपक्ष सरकार के बनाए नियम कानूनों, किए गए समझौतों को फर्जी साबित करने में पूरी ऊर्जा लगा देता है। हिंदुस्तान में इस बात से इंकार तो कतई नहीं किया जा सकता कि पार्टी चाहे जो हो उसके लिए राजनीति और सत्ता सर्वोपरि है बाकी देश और देश के नागरिक बाद में। एनआरसी के मुद्दे पर सबसे ज्यादा बवाल काटने वाली कांग्रेस के लिए किसी जमाने में असम में एनआरसी अत्यधिक महत्व की चीज हुआ करती थी। मगर आज एनआरसी पर कांग्रेस अपने तर्कों से ये सिद्ध करना चाहती है कि बीजेपी की नीति अल्पसंख्यकों के लिए सही नहीं है।
भारत- अमेरिका परमाणु समझौते पर तत्कालीन यूपीए सरकार का विरोध करने वाली एनडीए ने सरकार में आने के बाद उस समझौते का श्रेय लेने में कोई कोताही नहीं बरती।
ये हिंदुस्तान और उसमें निवास करने वाले नागरिकों का दुर्भाग्य ही है कि उसका प्रतिनिधित्व करने वाले दल अपनी राजनीति के लिए उसके हितों से समझौता करने में कोई गुरेज नहीं करते। हिंदुस्तान के राजनीतिक दलों में न तो कोई सिद्धांत बचा है और न ही देश और जनता के प्रति निष्ठा। यही कारण है कि विपक्ष हमेशा सत्ता का विरोध करता है और सत्ता अपने कर्मों-कुकर्मों को सही ठहराने के लिए पुरानी सरकारों के कर्मों को जिम्मेदार ठहराती है।
( लेखक, पॉलिसी रिसर्च के कार्य से जुड़े हैं। लेख में वर्णित तथ्य उनके निजी विचार हैं। )
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