नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : अगले कुछ महीनों मे देश में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उत्त्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब जैसे राज्य़ इनमें शामिल हैं। चुनावी जोड़-तोड़, नफा – नुकसान सब आंका और समझा जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए विपक्षी दलों का जोर साझा रणनीति अपनाने पर है लेकिन सबसे बडी बाधा कांग्रेस की मौजूदा स्थिति और नेतृत्व को लेकर है।
कांग्रेस में लगातार नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे हैं। जी –23 का समूह पार्टी में नेतृत्व के संकट को लेकर पहले से ही हमलावर है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को दावा करना पड़ा कि वे पार्टी की पूर्णकालिक अध्यक्ष हैं और सारे अहम फैसले लेने में उनकी भूमिका होती है। उन्होंने ये भी कहा कि पार्टी अगले साल सितंबर तक अपना नया नेता चुन लेगी।
लेकिन सवाल ये उठता है कि मैं ही पार्टी की नेता हूं और मैं ही फैसले लेती हूं इतना कह देने भर से किसी शीर्ष नेतृत्व की ताकत और विश्वसनीयता पर भरोसा किया जा सकता है। कांग्रेस में पिछले कुछ सालों से जिस तरह के अंदरूनी हालात बने हुए हैं उससे पार्टी कार्यकर्तांओं से लेकर आम जनता तक में पार्टी की दशा और दिशा को लेकर नकारात्मक संकेत जा रहा है। पार्टी के लगातार सिकुड़ते जनाधार और अंदरूनी कलह ने कुछ राज्यों में
उसके हाथ में आई सत्ता को छीन लिया। सोनिय़ा गांधी बीमार रहती है और जैसा आक्रामक नेतृत्व चाहिए वो उनके बस का नहीं है। कोरोना ले लेकर, पंजाब और छत्तीसगढ़ मसलों के हल में उनकी भूमिका गौण ही रही।
राहुल और प्रियंका की स्थिति
2019 लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी ने पार्टी की हार का जिम्मा लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ दिय़ा। अमेठी में राहुल खुद अपनी सीट हार गए। प्रियंका कांग्रेस की महासचिव हैं और फिलहाल उत्तर प्रदेश में पार्टी की प्रभारी भी हैं। लेकिन हकीकत में देखा जाए तो पार्टी के सारे अहम फैससे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ही ले रहे हैं। पंजाब में हाल में हुए बदलाव की पृष्ठभूमि को देखा जाए तो नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला
प्रियंकी गांधी ने लिया तो चरनजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का ताज राहुल गांधी की कृपा से मिला। हालांकि ये सच है राहुल हो या प्रिय़ंका पार्टी को फ्रंट से लीड करने में वे अभी भी बच रहे हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि राहुल गांधी ने कोरोना के पीक में जिस तरह से लगातार मोदी सरकार पर हमले किए और सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए उससे विपक्ष के एकमात्र चेहरे के रूप में राहुल गांधी ही देश की जनता के सामने नजर आए। अर्थ व्यवस्था, कोरोना, चीन के साथ सीमा पर संघर्ष जैसे तमाम मसलों पर राहुल ने देश की जनता के सामने सरकार से उलट पक्ष को सामने रखा। पार्टी की तरफ से भी राहुल को चेहरा बनाए रखने में
कोई दिक्क्त नहीं हुई। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि राहुल गांधी पार्टी का नेतृत्व संभालने से क्यों भाग रहे हैं? सत्ता की लड़ाई में हार-जीत लगी रहती हैं लेकिन पार्टी को शून्य़ में छोड़ देना जिम्मेदार नेता का काम नहीं होता।
राहुल की खुद की इमेज
राजनीति विज्ञानी, प्रोफोसर वाई डी कृष्णमूर्ति के अनुसार, राहुल ने 2019 में नेतृत्व छोड़ कर स्केपिस्ट होने की जो छाप अपने ऊपर लगाई उससे वे अभी तक उबर नहीं पाए हैं। विपक्ष तो छोड़िए, उनकी खुद की पार्टी भी उन पर आंख मूंद कर भरोसा करने को तैयार नहीं। प्रोफेसर मूर्ति का कहना है कि, काग्रेस का उत्तर भारत में मजबूत होना बहुत जरूरी है। उत्तर भारत के चुनावों में दक्षिण के मुकाबले जज्बाती मुद्दे हावी रहते हैं और बीजेपी इन्हीं
मुद्दों पर खेलती है। राहुल को इस चुनावी परिदृश्य़ को बदलना है तो कड़ी मेहनत के साथ ताल ठोंक कर मैदान में उतरना होगा।
प्रोफेसर दिव्येश बरुआ, कांग्रेस के भविष्य को लेकर कई सवाल उठाते हैं. उनका कहना है कि, भारत में अतिवादी राजनीति नहीं चलती। बीजेपी ने भी 2014 के चुनावों में एक मध्यमार्गी और उदार चेहरे के साथ चुनाव लड़ा और जीता। विकास की राजनीति का नारा जनता को पसंद आया। जनता ने कांग्रेस की जगह बीजेपी को मौका दिया। लेकिन अब हालात अलग हैं। विपक्षा के पास बीजेपी के खिलाफ मुद्दे ही मुद्दे हैं। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इन मुदंदों को तरीके से उठाना और उसे जनता के मुद्दों में तब्दील करना है। इस मामले में कांग्रेस पूरी तरह विफल रही है।
पसोपेश में विपक्ष
बीजेपी के खिलाफ सशक्त विपक्षी गठबंधन तैयार करने के लिए तमाम राजनीतिक दल प्रयासरत हैं। ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव इस मामले में काफी मुखर और सक्रिय हैं लेकिन परेशानी ये है कि आज भी कांग्रेस के बिना किसी भी सशक्त विपक्षी गठबंधन की उम्मीद नहीं की जा सकती। कांग्रेस अभी खुद में ही उलझी हुई पार्टी है और अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया