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राजनीति में क्य़ा गुल खिलाएगी चाचा-भतीजे की ये ‘फिरजोड़ी’….

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लखनऊ (गणतंत्र भारत के लिए हरीश मिश्र ) :  मैनपुरी लोकसभा चुनावों में डिंपल यादव की जीत के साथ सबसे बड़ी राहत वाली खबर समाजवादी पार्टी के साथ चाचा शिवपाल यादव की पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का विलय रही। जीत के नतीजों के बीच ही शिवपाल यादव की इस घोषणा का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर गहरा असर पड़ने के आसार हैं। प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का असर कई विधानसभा और कछेक लोकसभा सीटों पर अच्छा खासा रहा है। माना जाता था कि वे चुनाव जीतने की स्थिति में भले न हों लेकिन समाजवादी पार्टी को नुकसान करने की स्थिति में जरूर रहे। इसी वजह से अखिलेश यादवव की कोशिश हमेशा से नाराज चाचा को अपने खेमें में वापस लाने की रही। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के शीर्षस्थ नेता मुलायम सिंह यादव के निधन ने इस टूटे तार को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई।

समाजवादी पार्टी और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का विलय़

आठ दिसंबर को गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव नतीजों के साथ उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लोकसभा और रामपुर एवं खतौली  विधानसभा के चुनान नतीजे भी आने वाले थे। मैनपुरी  में मुलायम सिंह यादव की बहू और अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार थीं। शुरुवाती रुझानों के साथ ही डिंपल यादव ने बढ़त बना ली जो बाद में बंपर वोटों से डिंपल की विजय में तब्दील हो गई।

चुनाव प्रचार के दौरान ही अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच नजदीकियां देखने को मिल रही थीं। बताया जाता है कि डिंपल यादव ने पर्चा भरने से पहले ही चाचा शिवपाल यादव को फोन करके उनकी रजामंदी मांगी थी। उन्होंने तुरंत अपनी रजामंदी देने के साथ अपनी पार्टी की तरफ से कोई उम्मीदवार चुनाव में नहीं उतारने की बात भी कही। हालांकि पर्चा भरने के दौरान शिवपाल यादव डिंपल के साथ नहीं गए थे।

अंदरखाने की चर्चाओं को माने तो, बाद में अखिलेश यादव और डिंपल खुद चाचा शिवपाल के पास गए और उनके सक्रिय समर्थन का आशीर्वाद मांगा। बात यहीं से बननी शुरू हुई। हालांकि, बीजेपी ने अपना दांव खेलते हुए उस उम्मीदवार को मैदान में उतारा जो कभी शिवपाल यादव का खासमखास हुआ करता था। कोशिश थी कि शिवपाल की अखिलेश से नाराजगी और मुलायम सिंह की नामौजूदगी का फायदा उठाकर वे समाजवादी पार्टी के गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब हो जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मुलायम सिंह के निधन के साथ पारिवारिक निकटता ने राजनीतिक कटुता को मिटाने में अहम भूमिका निभाई। शिवपाल यादव ने डिंपल का न सिर्फ समर्थन किया बल्कि नतीजे आने की खबरों के बीच ही अपनी पार्टी के समाजवादी पार्टी में विलय की घोषणा कर दी।

विलय की राजनीतिक अहमियत  

प्रगतिशील समाजवादी पार्टी भले ही अपनी दमदार राजनीतिक उपस्थिति दर्ज न करा पाई हो लेकिन यादव वोटों और बेल्ट में उसका अच्छा खासा प्रभाव रहा। अब तक इस पार्टी को वोटकटुवा की भूमिका में ही देखा गया था लेकिन इस विलय के बाद इन दोनों ही पार्टियों को अपनी राजनीतिक जमीन को और मजबूती देने में मदद मिलेगी। यादव परिवार की आपसी कलह से उनके अपने सबसे मजबूत यादव वोटबैंक में ही भ्रम की स्थिति बनी रहती थी और वो खेमों के प्रति निष्ठा पर आधारित होता था। इस विलय के बाद अब वो समूचा वोटबैंक एकमुश्त मजबूती के साथ समाजवादी पार्टी के पीछे खड़ा होने की स्थिति में फिर से आ गया है।

इस राजनीतिक विलय ने यादव परिवार में एका का बड़ा संदेश दिया है। जब तक मुलायम सिंह यादव जीवित रहे अखिलेश य़ादव और शिवपाल यादव के बीच विवाद कभी भी राजनीतिक मर्यादा को लांघ नहीं पाया। उनके निधन के बाद इस बात के आसार थे कि शायद अब चाचा-भतीजे के बीच विवाद और तूल पकड़ेगा। लेकिन मुलायम सिंह यादव की मृत्यु ने इन दोनों राजनीतिक विरोधियों को करीब आने का मौका दिया और बिगड़ी बात बन गई।

राजनीतिक गलियारे में शिवपाल यादव एक कुशल प्रबंधक माने जाते हैं। समाजवादी पार्टी के जन्म के साथ ही मुलायम सिंह यादव के हमसाये की तरह चलने वाले शिवपाल सिंह यादव को पार्टी के नफे-नुकसान का भलीभांति भान था। जमीन पर डटकर काम को अंजाम तक पहुंचाना उनकी फितरत में शामिल था इसलिए उनकी जुदा राह की कमी समाजवादी पार्टी को भी महसूस हो रही थी। दूसरी तरफ शिवपाल यादव को भी सिर्फ वोटकटुवा की भूमिका में रहने का दर्द समझ में आ रहा था। ऐसी स्थिति में इन दोनों ही पार्टियों का एकजुट होना एकदूसरे के लिए फायदेमंद होने से कहीं ज्य़ादा उनकी राजनीतिक जरूरत थी।

इस राजनीतिक विलय का एक बडा नतीजा ये होगा कि, समाजवादी पार्टी के गढ़ में पारिवार के झगड़े का फायदा उठा कर अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने वाली बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी हो गई है। बीजेपी ने मुलायम परिवार में झगड़े को खूब हवा दी। बीच में शिवपाल यादव के बीजेपी में शामिल होने की चर्चा भी खूब गरमाई। मैनपुरी में बीजेपी ने शिवपाल यादव के करीबी को इसीलिए पार्टी का टिकट दिय़ा कि यादव परिवार के प्रति निष्ठा रखने वाले वोट बैंक में सेंध लगेगी और उसका फायदा बीजेपी उम्मीदवार को मिलेगा। उसे शिवपाल यादव के परोक्ष समर्थन की उम्मीद भी थी लेकिन उसकी इन उम्मीदों पर पानी फिर गया।

कितनी आसान होगी भविष्य की राह ?

सवाल उठाए जा रहे हैं कि, समाजवादी पार्टी में यादव परिवार के पहले से स्थापित कई बड़े नामों के बीच चाचा शिवपाल अपनी खोई जमीन और प्रतिष्ठा को फिर से कैसे हासिल कर पाएंगे ?  उत्तर प्रदेश की राजनीति को पढ़ने में माहिर लोगों की माने तो शिवपाल यादव बखूबी इस बात को समझते हैं कि पार्टी में किस जगह उनकी जरूरत है और वे किस तरह से अपनी अहमियत को बनाए रख सकते हैं। समाजवादी पार्टी के उनके पुराने सहयोगी भी उनके प्रबंध कौशल की दाद देते हैं और इस लिहाज से उनके राजनीतिक कद और रसूख पर कोई आंच नहीं आने वाली। 2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्षी एकता और गठबंधन के लिए जमीन तैयार करने के काम में जहां अखिलेश यादव और प्रोफेसर रामगोपाल यादव की सक्रियता राष्ट्रीय स्तर पर होगी वहीं, कय़ासहै कि शिवपाल यादव और धर्मेंद्र यादव पार्टी के जनाधार और उसे जमीनी स्तर पर मजबूती देने के काम में सक्रिय रहेंगे।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया  

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