भोपाल ( गणतंत्र भारत के लिए सुशांत भाटिय़ा) : कर्नाटक में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। पार्टी नेता राहुल गांधी ने दावा किया है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस 150 सीटें जीतने जा रही है। खबर है कि, पार्टी के आंतरिक सर्वे में भी कम से कम 139 सीटें पाने का अनुमान लगाया गया है।
मध्यप्रदेश के सामाजिक, जातीय और राजनीतिक समीकरण कर्नाटक से एकदम भिन्न हैं। ऐसे में सवाल ये है कि क्या सचमुच मध्य प्रदेश की चुनावी रणभूमि के लिए कर्नाटक में जड़े तलाशी जा सकती हैं।
आपको बता दें कि, 22 मई को कांग्रेस के राष्ट्रीय ट्विटर हैंडल से एक ट्वीट में कर्नाटक की ही तर्ज पर मध्य प्रदेश की जनता से भी पांच वादे किए गए और कहा गया, ‘मध्य प्रदेश की जनता से कांग्रेस का वादा… कर्नाटक में हमने वादा निभाया, अब एमपी में निभाएंगे।’
कांग्रेस पार्टी के इन बुलंद हौसलों ने भारतीय जनता पार्टी के लिए मध्य प्रदेश हो या केंद्रीय नेतृत्व चिंता की लकीरें पैदा कर दी हैं। हालांकि, कांग्रेस पार्टी के बयान पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि, ‘ये कर्नाटक-फर्नाटक क्या है? ये मध्यप्रदेश है। यहां हम धूमधाम से जीत का रिकॉर्ड बनाएंगे। उनके (कांग्रेस) पास क्या है, हमारे पास नरेंद्र मोदी हैं। दिन-रात तपने वाले देवदुर्लभ कार्यकर्ता हैं। कांग्रेस कहीं से भी हमारा मुकाबला नहीं कर सकती। मेरे तरकश में अभी बहुत से तीर हैं।’
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को दावा करना था, उन्होंने किया लेकिन उनके दावे में ही उनके कई सवालों का जवाब छिपा था। क्या कर्नाटक में बीजेपी के पास नरेंद्र मोदी का चेहरा नहीं था, क्या वहां बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर आश्रित नहीं थी। बीजेपी के लिए स्थानीय़ मुद्दे और प्रश्न वहां पर गौण थे। यही हाल कुछ-कुछ मध्यप्रदेश में भी है। बीजेपी यहां खुद स्थानीय प्रश्नों से कन्नी काटती दिखाई दे रही है और उसे भरोसा है कि यहां पर अगर कोई पार्टी की नैय्या पार लगा सकता है तो वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा है। इस बात की झलक शिवराज सिंह चौहान के जवाबी प्रत्युत्तर में भी दिखाई पड़ती है।
पॉलिटिकल एनेलिस्ट देवेश निगम के अनुसार, ‘इसमें कोई दोराय नहीं कि कर्नाटक के नतीजों से कांग्रेस के हौसले बढ़े हुए हैं जबकि बीजेपी में रोजबरोज कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है जिससे उसमें बिखराव दिखाई दे रहा है। उसके नेता कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं कई मंत्री और विधायकों का अंसतोष किसी से छिपा नहीं है। ज्य़ोतिरादित्य़ सिंधिया को लेकर भी पार्टी के भीतर नाराजगी है। राज्य बीजेपी के तमाम नेता खुद चाहते हैं कि सिंधियां की स्थिति ऐसी कर दी जाए कि वे हाशिए पर पड़े रहें।’
देवेश मानते हैं कि, ‘कांग्रेस के हौसले ने शिवराज को डगमगा दिया है। उन पर खुद पार्टी के भीतर से ही चौतरफा हमला हो रहा है। पूर्व मंत्री अजय विश्नोई हों या भंवर सिंह शेखावत, कोई उन्हें बख्शने को तैयार नहीं। मालवा में जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) अपना प्रभाव बनाने की कोशिश कर रहा है, कितना बनाएगा, ये तो कह नहीं सकते लेकिन कुछ सीटों पर उसका असर जरूर पड़ेगा। विंध्य में भी असंतोष है कि इतनी अधिक सीटें आने के बाद भी मंत्रिमंडल में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला। इन सभी वजहों से बीजेपी में थोड़ी सी ऊहापोह और बिखराव की स्थिति है।’
पॉलिटिकल स्ट्रेटेजिस्ट रमन वी. मानते हैं कि, ‘राजनीति में परसेप्शन बहुत अहमियत रखता है। लेकिन कई बार जरूरत से ज्यादा परसेप्शन पर भरोसा भारी पड़ जाता है जैसा कि बीजेपी के साथ कर्नाटक में हुआ। लगातार चुनाव जीतती आ रही बीजेपी को उसका अति आत्मविश्वास ही ले डूबा। कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ था ही नहीं। कर्नाटक में कांग्रेस की विजय़ ने उसके बारे में लोगों के नजरिए को बदला है। कर्नाटक ने दो तरह से असर डाला, बीजेपी को अहसास हुआ कि वो हार भी सकती है और कांग्रेस के अंदर ये हौसला पैदा हुआ कि वे अब जीत भी सकती है।’
रमन बताते हैं कि, ‘मध्य प्रदेश में देश के सबसे ज्यादा आदिवासी वोटर हैं। राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में प्रदेश के आदिवासी इलाकों का ध्यान रखा गया था। बुरहानपुर, खरगौन, खंडवा और बड़वानी जैसे आदिवासी ज़िलों में राहुल गए। 230 सदस्यीय विधानसभा में 20 फीसदी यानी 47 सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय के लिए आरक्षित हैं जबकि ऐसा माना जाता है कि राज्य की करीब 70 से 80 सीट पर आदिवासी मतदाताओं का प्रभाव है। कर्नाटक के नज़रिये से देखें तो वहां की 15 आदिवासी सीटों में से बीजेपी को एक पर भी जीत नहीं मिली। इसीलिए बीजेपी की चिंता बहुत वाजिब है।’
रमन बताते हैं कि, ‘बीजेपी को सत्ता में लाने और बनाए रखने में आदिवासी वर्ग का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 2003 के चुनावों और उसके बाद 2008 और 2013 में भी आदिवासी बीजेपी के साथ बना रहा लेकिन 2018 में इस वर्ग ने बीजेपी को झटका दिया। 2018 में आदिवासी प्रभाव वाली उसकी सीटें घट कर आधी यानी 16 हो गई जबकि कांग्रेस को पिछले चुनावों के मुकाबले दोगुनी यानी 30 सीटें मिल गई। पिछले चुनावों में बीजेपी को कुल 109 और कांग्रेस को 114 सीटें मिली थीं। हार-जीत का अंतर इतना मामूली था कि अगर, आदिवासी मतदाता बीजेपी से नहीं छिटकता तो उसकी सरकार बननी तय थी।’
देवेश निगम बताते हैं कि, ‘तमाम कमजोरियों के बावजूद बीजेपी को शिकस्त देना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। राज्य में तकरीबन दो दशक से बीजेपी की सरकार है। मजबूत संगठन है। शिवराज के मुकाबिल कोई दूसरा चेहरा नहीं है यानी मोटे तौर पर कोई गुटबाजी नहीं है। सिंधिया गुट की हैसियत कम से कमतर होती जा रही है। ऐसे में ‘मामा’ की वापसी की राह में रोड़ा डलने के लिए कांग्रेस को अपने घोड़े खोलने पड़ेंगे।’ देवेश ये भी कहते हैं कि, ‘2013 में तो मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ व्यापमं घोटाला, डंपर घोटाला एवं नर्मदा में जल सत्याग्रह जैसे मुद्दे थे और 2018 में मंदसौर गोलीकांड जैसे बड़े मुद्दे काम कर रहे थे। फिर भी बीजेपी की सरकार बनी। इस बार ऐसा कोई बड़ा मुद्दा शिवराज सरकार को चुनौती देता नज़र नहीं आ रहा है।’
हालांकि देवेश इस बात को भी साथ-साथ कहते हैं, ‘कांग्रेस भी इस बात को समझती है। इसीलिए उसने अर्ली लीड लेने की कोशिश की है। ‘माइंडगेम’ तो है ही साथ ही मंडल सम्मेलनों का आयोजन, बडे़ नेताओं का लोगों के बीच जाना और कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने का काम शुरू हो चुका है। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ‘मामा’ का चेहरा काफी पुराना पड़ चुका है। कांग्रेस की कोशिश नए नेतृत्व के साथ मध्य प्रदेश से 2024 के लिए नया संदेश देने की भी है।’
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया