पिथौरागढ़, (गणतंत्र भारत के लिए न्यूज़ डेस्क) : भारत में दूरदराज़ और दुर्गम इलाकों में बहुत से लोग ऐसे कामों में जुटे हैं जो देखने में भले सामान्य लगें लेकिन उनका असर बहुत दूरगामी होता है। दरअसल यही लोग भारतीय गणतंत्र के असली पराक्रमी होते हैं। गणतंत्र भारत ने ऐसे पराक्रमियों की खोज का बीड़ा उठाया है और इस आलेख में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के सीमांत इलाकों में चल रहे प्रयासों की जानकारी दी जाएगी। कहानी इन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों और उनकी आजीविका से जुड़ी है। इन इलाकों में अधिकतर रिहाइश भूटिया आदिवासिय़ों की है और वे आजीविका के लिए भेड़, गाय और बकरियों को पालते हैं। उत्तराखंड के पशुपालन विभाग ने इनके कल्याण और विकास के लिए कई योजनाएं बनाईं हैं लेकिन दुर्गम इलाकों के इन बाशिंदो तक मदद पहुंच पाए सबसे बड़ी चुनौती तो यही है। लेकिन पशुपालन विभाग की टीम ने मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर एस. बी. पांडे के नेतृत्व में इस चुनौती को स्वीकार किया और तस्वीर को बदलने की कोशिश की। पशुपालन विभाग की इस कोशिश की दाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय पशुधन विकास मंत्री संजीव बालियान ने भी दी है।
आपको बता दें कि, पिथौरागढ़ के सीमांत इलाके धारचूला विकासखंड के व्यास घाटी में स्थित चीन सीमा पर भारत के अंतिम गांव कुटी और छियालेख में आमतौर पर भूटिया आदिवासी रहते हैं। इन्हें बुग्याल कहा जाता है। ये आदिवासी गर्मियों में ऊंचे पहाडों की तरफ चले जाते हैं जबकि जाड़ों में पहाड़ों से नीचे की तरफ माइग्रेट करते हैं। इनकी आजीविका का साधन भेंड़, बकरी और गायों का पालन है जिनसे वे ऊंन, मीट और स्वेटर वगैरह तैयार करते हैं। ये आदिवासी विकास की मुख्यधारा से अलग-थलग से रहते हैं और इन्हें इनके विकास के लिए बनी योजनाओं की जानकारी तक नहीं होती। इसकी एक वजह, इन क्षेत्रों में संपर्क मार्गों का अभाव भी रहा। पहले इन तक पहुंचने के लिए पैदल मार्ग ही होता था और 10 दिन का समय लग जाता था। अब सड़कें बन रही हैं और दिन की जगह घंटों ने ले ली है।
ये आदिवासी जिन चीजों, खासतौर पर जिस तरह के ऊंन तैयार करते हैं वे बहुत ही बेहतरीन क्वालिटी के हुआ करते हैं लेकिन सहायता के अभाव और कृत्रिम चीनी ऊंन की आवक के साथ उनका ये कारोबार भी खतरे में पड़ रहा है। चीनी माल क्वालिटी में हलका होने के साथ लोगों को सस्ता पड़ता है इसलिए उसका बाजार बढ़ रह है।
इन हालात को देखते हुए उत्तराखंड सरकार के सामने दो चुनौतियां हैं थीं, पहली, उनके पारंपरिक कौशल को कैसे बरकरार रखा जाए और दूसरा उन्हें किस तरह से प्रोत्साहित किया जाए ताकि वे विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन सकें।
मुश्किलों को किया दरकिनार
लेकिन इन चुनौतियों से निपटने के लिए पशुपालन विभाग की टीम ने रणनीति तैयार की और जुट गई अपने लक्ष्य को पूरा करने में। इसके लिए मौसम बदलने और माइग्रेट करने के वक्त को ही चुना गया। पहला काम था उनके पशुधन यानी आजीविका के संरक्षण का। इसके लिए उनके सामाजिक तानेबाने के साथ तालमेल भी जरूरी था। वो सब किया गया। इस साल पशुपालन विभाग की 9 सदस्यों की टीम ने मोर्चा संभाला। कमान डॉक्टर एस. बी पांडे के हाथ में थी। सबसे पहले तो पशुघन का वैक्सीनेशन कराया गया ताकि वे किसी बीमारी के शिकार न हों। 14 और 15 मई को इस काम के लिए कुटी और छियालेख में शिविर लगाए गए।
वैक्सीनेशन का ये काम साल में दो बार किया जाता है लेकिन इसके साथ इस टीम ने अलग-थलग पड़े आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा के साथ जोड़ने की मुहिम भी शुरू की। टीम की कोशिश इन प्रवासी आदिवासियों को सरकार की उन तमाम विकास योजनाओं के बारे में जागरूक करने की भी थी जिनसे इनको बहुतत फायदा हो सकता था। टीम ने बखूबी इस काम को अंजाम दिया। कारोबार को प्रोत्साहन और पशुधन की नस्लों में सुधार संबंधी योजनाओं और पहल के बारे में इन आदिवासियों को जागरूक करने का प्रतिफल ये रहा कि अब वे भी इन सरकारी कोशिशो में दिलचस्पी लेने लगे हैं।
इन दोनों शिविरों में डॉ. एस. बी. पांडे के अलावा, पशु चिकित्सा अधिकारी जौलजीवी डॉ. पंकज गुणवंत, पशु चिकित्सा अधिकारी पांगू डॉ. जुगल गर्खल, पशु चिकित्सा अधिकारी खेत डॉ. कविराज मर्तोलिया, पशुधन प्रसार अधिकारी रमेश सिंह कुटियाल ने हिस्सा लिया।
गणतंत्र भारत से बातचीत करते हुए डॉ. एस बी पांडे ने कहा कि, इन दुर्गम इलाकों में सड़कों के निर्माण का काम काफी तेजी से हो रहा है, इससे हमारे लिए सहूलियतें बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि हमें खुशी है कि हम पशुघन के संरक्षण और विकास के काम के साथ इन आदिवासी समुदायों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में भी मददगार बन रहे हैं। सरकार के पास उनके कल्याण के लिए तमाम योजनाएं तो हैं लेकिन उनके बारे में उस समुदाय को जागरूक करना भी बड़ा काम है जिनके लिए इन योजनाओं को तैयार किया गया है।