नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए न्यूज़ डेस्क): केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने, देश के विभिन्न भाषाभाषियों को संपर्क भाषा को रूप में अंग्रेजी नहीं हिंदी के इस्तेमाल की सलाह दी है। गृहमंत्री ने कहा कि अलग-अलग राज्य के लोगो को आपस में अंग्रेजी के बदले हिंदी में बात करनी चाहिए। अमित शाह ने संसदीय आधिकारिक भाषा समिति की 37वीं बैठक के दौरान ये बातें कहीं।
गृह मंत्री के इस विचार के बाद सोशल मीडिया पर अच्छी खासी बहस छिड़ गई। काफी लोग समर्थन में तो कई लोग विरोध में सामने आए। ट्विटर पर एक य़ूजर सदाशिव ने लिखा कि गृह मंत्री का विचार गलत नहीं है। उसके फायदे हैं, लेकिन उससे ज्यादा फायदा अंग्रजी में है। हिंदी को समृद्ध बनाओ, लोग खुद ब खुद बोलेंगे। दूसरे यूज़र, रोहित सालगांवकर कहते हैं कि, गृह मंत्री को ऐसी सलाह देने पहले गैर हिंदी भाषी राज्यों को भी भरोसे में लेना चाहिए था।
अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के अनुसार, गृह मंत्री ने बैठक में बताया कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ़ैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम आधिकारिक भाषा होनी चाहिए और इससे वाकई हिंदी का महत्व बढ़ेगा। अब समय आ गया है कि आधिकारिक भाषा को देश की एकता का अहम हिस्सा बनाया जाए। जब अलग-अलग भाषा बोलने वाले दो राज्यों के लोग बात करते हैं तो बातचीत भारतीय भाषा में होनी चाहिए। अमित शाह ने स्पष्ट किया कि हिंदी को स्थानीय भाषा के नहीं बल्कि अंग्रेज़ी के विकल्प के तौर पर स्वीकार करना चाहिए। गृह मंत्री इस संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं और बीजेडी के बी महताब इसके उपाध्यक्ष हैं।
गृह मंत्री ने बताया कि कैबिनेट का 70 प्रतिशत एजेंडा हिंदी में तैयार होता है। पूर्वोत्तर भारत के आठ राज्यों में 22 हज़ार हिंदी के शिक्षक नियुक्त किए गए हैं। इलाक़े के नौ आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपियों को देवनागरी में बदला है।
गृह मंत्री के बयान से माहौल गरमाया
भाषा विज्ञानी राम शंकर के अनुसार, भारत जैसे विभिन्न भाषाओं वाले देश में ये थोड़ा संजीदा मामला है लेकिन उनकी सलाह में गलत कुछ नहीं। लेकिन अंग्रेजी बोलने और सीखने का भारतीय समाज में अब तक जो फाय़दा मिलता रहा है उसके कारण अंग्रेजी को लोगों ने अपनाया। उनका कहना है कि अब भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव आ रहा है। पहले से स्थापित कुछ प्रतिमान टूट रहे हैं और हिंदी का बढ़ता चलन भी इसमें से एक है।
वे मानते हैं कि, गृह मंत्री की सलाह पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है लेकिन इसके लिए गैर हिंदी भाषी राज्यों को भरोसे में लेना सबसे बडी चुनौती है। पहले भी देश ने भाषा के नाम पर राजनीति का एक खेल देखा है जब 1950 के दशक में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन को हिंदी थोपो आंदोलन का रूप दे दिया गया था। फिर देश में हिंदी की स्वीकार्यता को बढ़ाने के लिए त्रिभाषा फार्मूला भी लाया गया। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अंग्रेजीपरस्त मानसिकता का है और उससे निपटना सबसे बड़ी चुनौती और सवाल है।
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