नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी) :
कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो इंसान के सोचने और कुछ करने के तौर-तरीकों को ही बदल कर रख देती हैं। ऐसी ही घटना दिल्ली में साल 2012 में हुई। निर्भया कांड। इस रोंगटे खड़ी कर देने वाली घटना ने फिल्म निर्माता आनंदना कपूर को भी झकझोर कर रख दिया। उन्होंने कुछ ऐसा करने की ठानी जो न सिर्फ प्रताड़ित महिलाओं और लड़कियों को अपनी आवाज उठाने का प्लेटफॉर्म दे बल्कि उसे सार्वजनिक जीवन में प्रकट करके उसके खिलाफ एक दबाव का माहौल भी बनाया जा सके।
वर्ष 2012 में हुए निर्भया केस और उसके बाद आम नागरिकों के प्रतिरोध ने आनंदना को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने एक ऐसे माध्यम का इस्तेमाल करना चाहा जो ऐसी महिलाओं की कहानियों को सामने लाए जो बहुत बहादुरी के साथ वैसे हालात से खुद को बाहर निकाल कर लाईं और वे अपने अनुभव को साझा करना चाहती थीं। उन्होंने इस काम के लिए इंटरेक्टिव डॉक्यूमेंट्री (आई डॉक) के विचार को केंद्र में रखते हुए एक एंड्रॉयड मोबाइल
एप्लीकेशन तैयार करवाया और उसे उन्होंने कनवरसेशननाम दिया। इस ऐप पर दिल्ली में घरों में काम करने वाली कामगार महिलाओं और गृहणियों के साथ मिल कर वीडियो कहानियां बनाई जा सकती हैं। आनंदना ने एक पत्रिका से बातचीत में कहा कि, ( इस तरह की इंटरेक्टिव डॉक्यूमेंट्रीज़ घटनाओं को जीने का जरिया हैं जिसमें दर्शक की भागीदारी से कहानी के बहाव में बदलाव आता रहता है। उनके इस ऐप पर महिलाएं अपनी कहानियों को रिकॉर्ड भी करा सकती हैं जिसे बड़े श्रोता वर्ग तक पहुंचाने की दृष्टि से उन्हें एक वेबसाइट पर आर्काइव किया जाता है।
अब इंटरेक्टिव मोबाइल एप्लीकेशन ऐप के प्रोजेक्ट के माध्यम से कपूर कहानियों और उन्हें सुनाने वालों के बीच की दीवर को तोड़ देना चाहती हैं। उनका मकसद नई दिल्ली की महिलाओं को अपने साथ हुई घटनाओं को नियंत्रित करने, उनकी आवाज को संरक्षण देने और इस असुरक्षित शहरी माहौल में वे किस तरह से जी रही हैं, उसे सामने लाने का है।
आनंदना ने अब तक पुरस्कार जीतने वाली कई फिल्मों का निर्माण किया है जिनमें, द ग्रेट इंडियन जुगाड़, ब्लड ऑन माई हैंड्स और जासूसनी- लुक हू इज़ वॉचिंग यू- शामिल हैं। इन फिल्मों के जरिए तमाम तरह के विषयों को उठाया गय़ा है। आनंदना ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में मास कम्युनिकेशन से जुड़े पाठ्यक्रम को पढ़ाया है।
वे कहती हैं कि, एकेडमिक्स ने मुझे कठिन सवालों को पूछने और फिर उन्हें दार्शनिकता के आवरण में समझने का हौसला दिया तो वहीं फिल्मों ने मुझे उन
सवालों के जवाब तलाशने में मदद की है। आनंदना अपने ऐप को महिला संगठनों से इस बिना पर साझा करने को भी तैयार हैं कि वे इसमें अपने हिसाब से बदलाव करके उसको ज्यादा संवादी बना सके या कुछ सकारात्मक कदम उठा सकें। ऐप बनाने की प्रेरणा के बारे में बताते हुए आनंदना थोड़ा पीछे अपनी पढ़ाई के दिनों में बोस्टन एमआईटी की तरफ लौटती हैं। उन्होंने बताया कि, बोस्टन में रहने के कारण उन्हें कोड फॉर बोस्टन नाम के एक ऐसे समूह से मिलने का मौका मिला जो नागरिक और सामाजिकता से जुड़े मसलों के तकनीक आधारित समाधान तलाशने की कोशिश करता था। इसी समूह ने उन्हें सिखाया कि बतौर फिल्म निर्माता और रचनात्मक कलाकार किस तरह से डिजिटल तकनीक का बेहतरीन इस्तेमाल किया जा सकता है और सामाजिक मसलों पर अपनी आवाज मुखर करने का जरिया तैयार किया जा सकता है ।
फोटो सौजन्य – सोशल मीडिया