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जिताऊ और बिकाऊ चेहरे, चुनावी परंपराओं को बदलने का वक्त ?

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र):

देश में चुनावों की हलचल है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी परोक्ष रूप से इस जंग के किरदार हैं। नरेंद्र मोदी के रूप में एनडीए के पास तुरुप का पत्ता है  तो वहीं कांग्रेस राहुल गांधी के जरिए अपनी खोई राजनीतिक जमीन के वापस पाने की जुगत में जुटी है। कुल मिलाकर चुनावी जंग अब चेहरों की साख की लड़ाई बन गई है।     

भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र वाले देश में देश, राज्य या स्थानीय स्तर पर होने वाले चुनावों में आजकल एक फैक्टर बहुत महत्वपूर्ण बन कर उभरता है कि आखिर किसी दल के पास कौन सा चेहरा है। वो चेहरा कितना जिताऊ है, कितना बिकाऊ है ये चुनाव का सबसे बड़ा विषय होता है।

संविधान कहता है कि लोकसभा या विधानसभा में बहुमत वाला दल या गठबंधन जिस व्यक्ति को आपना नेता चुनेगा वही देश या राज्य की कमान संभालेगा। यानी चुनाव बाद  बहुमत वाले दल या गठबंधन को वह चेहरा चुनना होता था जो देश या राज्य का नेतृत्व करेगा।

फिर ऐसा क्या हुआ कि आज कोई भी चुनाव हो चेहरे का सवाल पहले उठने लगता है। देश का संविधान बनने से पहले दुनिया भर के देशों के संविधान को पढ़ा गया, जाना गया। तमाम बडे देशों के संविधान से बहुत सी बातें हमारे संविधान में समाहित की गईं। जर्मनी के वीमर कॉंस्टीट्यूशन से लेकर, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और आयरलैंड तक के संविधान से तमाम विशेषताओं को हमारे संविधान ने ग्रहण किया।

संसदीय लोकतंत्र की परंपरा हमारे संविधान ने इंगलैंड के संविधान से ली लेकिन संसद की सर्वोच्चता पर लगाम लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति जैसी संस्थाओं को धारदार बनाया और संविधान को सर्वोच्च बनाया गया।

चेहरे की चमक हमेशा ही महत्वपूर्ण रही

आजादी के बाद देश में कांग्रेस पार्टी का एकक्षत्र वर्चस्व था। उसके सामने मजबूत प्रतिपक्ष जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं। जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और राजेद्र प्रसाद तक सभी बड़े नेता कांग्रेस में थे। आजादी की लड़ाई से निकले इन नेताओं का कद इतना बड़ा था कि ये किसी भी प्रणाली से चुनाव होता इऩके चेहरे उन चुनावों पर भारी पड़ते। देश की जनता को इससे मतलब नहीं था कि नेहरू किस पार्टी के हैं लोग नेहरू के नाम पर ही वोट देते थे।

बाद में ऐसा ही कुछ देश में इंदिरा गांधी, आपात काल के विरोध में चुनाव नहीं लड़ने के बावजूद प्रतिपक्ष का चेहरा बने लोकनायक जयप्रकाश नारायण और अब मौजूदा दौर में बीजेपी की पहचान बने नरेंद्र मोदी के साथ भी है। नरेंद्र मोदी ही आज की तारीख में बीजेपी के लिए जीत का चेहरा हैं। देश से लेकर राज्य और यहां तक कि स्थानीय चुनावों में भी पार्टी उनके चेहरे को सामने रख कर ही चुनाव लड़ती है। देखा जाए तो नरेंद्र मोदी ही बीजेपी का वह जिताऊ चेहरा हैं जिनके सहारे पार्टी  अधिकतर चुनावों में विजय हासिल करती रही है।

राज्य स्तर पर भी वही परिपाटी

राज्य स्तर पर भी देखा जाए तो विभिन्न राजनीतिक दलों की पहचान किसी न किसी नेता के चेहरे से जुड़ी है। बहुजन समाज पार्टी मायावती से, समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव, लालू यादव राजद, नीतीश कुमार जनतादल यूनाइटेड, तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी, अकाली दल बादल परिवार, बीजेडी नवीन पटनायक। ऐसे तमाम उदाहरण कशमीर से लेकर कन्याकुमारी तक मौजूद हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि इनके नेताओं के चेहरों की चमक ही उनका पार्टी की जीत या हार का सबब बनी।

राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरफ बढ़ता देश

मौजूदा चुनाव प्रणाली में जिस तरह से नेताओं का कद पार्टी से बड़ा बनाया जा रहा है उससे देश की संसदीय परंपराओं पर सवाल उठ रहा है और कहीं न कहीं ये प्रतिध्वनि महसूस की जा रही है कि देश अब राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरफ बढ़ चला है। अमेरिका की तरह यहां भी देश की जनता प्रत्यक्ष रूप से देश का नेता चुन ले और वही देश चलाए। संसद वही काम करे जो अमेरिका में सीनेट और प्रतिनिधि सभा करती है। राष्ट्रपति के फैसलों पर संसद की मुहर जरूरी है।

राष्ट्रपति शासन प्रणाली की मांग

कांग्रेस नेता बसंत साठे ने 90 के दशक के अंत में बड़े जोरशोर से ये मांग उठाई थी कि देश को राष्ट्रपति शासन प्रणाली को अपना लेना चाहिए और इसके लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए जाने चाहिए। वजह थी उस समय केंद्र में कमजोर गठबंधनों की सरकार थी और सरकारें बार-बार बन – बिगड़ रही थीं। खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा था। बाद में भी समय- समय पर देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की बात उठी लेकिन दब गई। एक बार  फिर से देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की बात उठ रही है।

राष्ट्रपति शासन प्रणाली की मांग की वजह

सत्तारूढ़ बीजेपी को पता है कि उसके पास नरेंद्र मोदी के रूप में एक दमदार चेहरा है और वह उस पर अगले कुछ सालों तक दांव खेल सकती है। इस दौरान पार्टी नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में किसी नए चेहरे को तलाश सकती है।

प्रतिपक्ष की बात की जाए तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी के अलावा कोई दूसरा चेहरा राष्ट्रीय पटल पर दिखता ही नहीं जो कम से कम नरेंद्र मोदी से मुकाबले के लिए तो तैयार तो हो सके।

राष्ट्रपति शासन प्रणाली के लिए जरूरी है देश में मजबूत दो दलीय व्यवस्था। एनडीए और यूपीए के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर दलों का ध्रुवीकरण इस बात का संकेत है कि देश कमोवेश उसी दिशा में बढ़ रहा है।

राष्ट्रपति शासन प्रणाली के लिए दिक्कत कहां है

भारत विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओँ, क्षेत्रों और मजहबों के संयोजन से बना देश है। देश के संविधान में इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए ही संसदीय लोकतंत्र की परंपरा को अपनाया गया था। राष्ट्र का हिस्सा होने के साथ राज्यों ने अपनी पहचान को बनाए रखने की चाह रखी। तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन और द्रमुक दलों का उदय क्षेत्रीय अस्मिता की पहचान की सबसे पहली आवाज थी। बाद में तमाम राज्यों में क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक पटल पर उदय हुआ और वे क्षेत्रीय पहचान के झंडाबरदार बन गए। इन दलों ने स्थानीय स्तर पर सरकारों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संसदीय चुनावों में काफी सीटें हासिल की और राष्ट्रीय सरकार के गठन  में अपने हित को सामने रखा। गठबंधन सरकारों के बनने- बिगड़ने में भी ऐसे दलों के निहित स्वार्थ वजह बने। तो सबसे बडी चुनौती इन दलों को इस बदलाव के लिए तैयार करने की है।

दूसरी परेशानी, संविधान में आमूलचूल परिवर्तन की है। उसके लिए सभी दलों को तैयार करने के साथ देश के जनमानस को भी तैयार करना होगा। मतसंग्रह के साथ देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं को इस बदलाव में साथ लेना सबसे महत्वपूर्ण होगा और उसके लिए वे कितने तैयार होंगे ये सोचने का विषय है। 

  

आशीष मिश्र

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