नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : अभी कुछ दिनों पहले इस्रायल में तेलअवीव के सड़कों पर जिंदा लोकतंत्र का नजारा देखने को मिला था। बेंजामिन नेतन्याहू सरकार ने देश के सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को कतरने की कोशिश की थी और सड़कों पर मानो पूरा इस्रायल उतर पड़ा हो। देश के संविधान को बचाने के लिए किसी देश की जनता ने इस कदर सरकारी कोशिश के खिलाफ बागी तेवर अपना लिया हो हाल-फिलहाल तो दुनिया में इसकी मिसाल नहीं मिलती।
नेतन्याहू इस्रायल में बहुमत से चुनी हुई सरकार के मुखिया हैं। उनके पास नंबर हैं वे संविधान को बदलने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि ये कहें कि अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। न्यायिक सुधारों के नाम पर इस्रायल में सरकार जो कुछ कर रही है उसमें जनता को अधिनायकवाद की बू आ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सरकार के कई फैसलों को संविधान विरोधी बताते हुए सवाल उठाए थे। ऐसे में नेतन्याहू ने सुप्रीम कोर्ट के ही पर कतरने की ठान ली और न्यायिक सुधार की आड़ में सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों की हदबंदी पर उतर आए।
चुनाव आयोग को जेबी संस्था बनाने की तैयारी
ये तो बात इस्रायल की थी, कुछ इसी तरह की कोशिशें भारत में भी हो रही हैं। केंद्र सरकार एक ऐसा कानून लाने के लिए बिल पेश करने जा रही है जिसके तहत अब मुख्य चुनाव आयुक्त के चुनाव में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को खत्म किया जा रहा है। प्रस्तावित बिल के प्रावधानों के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त का चुनाव प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और प्रधानमंत्री द्वारा तय किया गया एक कैबिनेट मंत्री मिल कर करेंगे।। पहले, नियम था कि चुनाव आयुक्क का चयन प्रधानमंत्री, देश के मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष मिल कर करते थे।
अगले साल देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। सुप्रीम कोर्ट के हालिया कई फैसले ऐसे रहे हैं जो शायद केंद्र सरकार के मनमाफिक नहीं थे। दिल्ली सरकार के अधिकारों से संबंधित मामले पर सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच के फैसले को पलटने के लिए केंद्र सरकार पहले अध्यादेश लाई और फिर कानून पास करा लिया और वो भी तब जबकि संविधान पीठ के पास मामला विचाराधीन है। इसी तरह से सरकार ने न्यायिक सुधारों की आड़ में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम में घुसने की बहुत कोशिश की लेकिन बात नहीं बन पाई। बिल्कीस बानो के अपराधियों की रिहाई पर सुप्रीम कोर्ट के तीखे सवालों और राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से राहत के साथ गुजरात की आदालतों को फैसलों पर तल्ख टिप्णियों ने भी सरकार को असहज किया है।
सवाल ये है कि, क्या अब भारत में भी बात सुप्रीम कोर्ट को सबक सिखाने पर आ गई क्या है ? दरअसल सुप्रीम कोर्ट को कठघरे में खड़़ा करने का उपक्रम देश में लगातार देखने को मिल रहा है। पहले के कानून मंत्री किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्तियो को लेकर कई बार सवाल उठाए। उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम की उपादेयता को भी संदिग्ध बताया। बात, बहुत बिगड़ गई तो सरकार ने पैर पीछे खींच लिए। किरण रिजिजू से कानून मंत्रालय भी ले लिया गया।
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश का मानमर्दन जारी रहा। तीस्ता सितलवाड़ को गिरफ्तारी के मामले में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर जिस तरह से छुट्टी के दिनों में और रात के वक्त सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की और उन्हें राहत दी उसे लेकर भी मुख्य न्यायाधीश को काफी कुछ सुनना पड़ा। सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी ने उन्हें जमकर गालियां दीं।
इस कानून की जरूरत क्यों ?
प्रस्तावित बिल के प्रारूप को देखते हुए जाहिर होता है कि सरकार चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को अपनी जेबी संस्था बनाने पर तुल गई है। चयन समिति के तीन सदस्यों में से दो सत्तारूढ़ दल के हों तो चुनाव उसी का होगा जिसे सरकार चाहेगी। विरोध की स्थिति में नेता प्रतिपक्ष तो सिर्फ डिसेंट का नोट देने भर का रह जाएगा। पहले की स्थिति में कार्यपालिका के अलावा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण होती थी और ऐसे पद पर नियुक्ति आमतौर पर आम सहमति से हुआ करती थी।
संविधानवेत्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता देवेंद्र भसीन के अनुसार, सरकार की इस कोशिश से जाहिर होता है कि सरकार संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता में विश्वास नहीं करती और वो अपरोक्ष रूप से इन संस्थाओं में ऐसे लोगों के बैठाना चाहती है जो उसी की अनुकंपा पर काम करें। ये गलत है। संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा होती है और विपक्षी दलों से ज्यादा इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है।
भसीन मानते हैं कि, सरकार जिस तरह से इस कानून को लाकर मुख्य न्यायाधीश को चयन प्रक्रिया से बाहर रखना चाहती है इससे उसकी मंशा पर संदेह होता है और ये संदेह तब और गहरा जाता है जब अगले कुछ महीनों में देश में आम चुनाव होने वाले हैं और सरकार के तमाम काम संवैधानिक मर्यादाओं को लांघते नजर आ रहे हों।
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