नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुरेश उपाध्याय) : इस साल हिमाचल प्रदेश में जुलाई-अगस्त के दौरान बादल फटने की एक के बाद एक कई घटनाएं हुईं। राज्य में एक दिन में सात जगह तक बादल फटे। इससे जानमाल का खासा नुकसान तो हुआ ही, जन-जीवन भी अस्तव्यस्त हो गया। उत्तराखंड और लद्दाख में भी कई जगह बादल फटे। क्लाइमेट में आ रहे बदलाव के कारण हाल के सालों में देश में बादल फटने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं।
2010 में लेह में बादल फटने की घटना के बाद भारत में ऐसी घटनाओं में तेजी दर्ज की गई है। अन्य देशों में भी बादल फटने के मामले सामने आ रहे हैं, लेकिन भारत के हिमालयी क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं सबसे ज्यादा हो रही हैं।
क्लाइमेट चेंज को तो बादल फटने का एक बड़ा कारण माना ही जा रहा है, साइंटिस्ट्स का मानना है कि जंगलों की आग भी इसके लिए जिम्मेदार है। गढ़वाल के हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय और आईआईटी, कानपुर के साइंटिस्ट्स की एक स्टडी में कहा गया है कि जंगलों की आग के कारण बड़ी संख्या में कार्बन और अन्य सूक्ष्म कण पैदा होते हैं। ये कण बादलों की सूक्ष्म बूंदों के साथ चिपक जाते हैं। इसके कारण ये बूंदे संघनित (कंडेंस्ड) हो जाती हैं और इनका घनत्व बढ़ जाता है। इसके कारण इनके एक साथ बरसने यानी फटने का खतरा पैदा हो जाता है। गौरतलब है कि हर साल मॉनसून की बारिश से पहले उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के जंगलों में आग लगती है। ये आग असावधानी के कारण तो लगती ही है, लेकिन कई जगह बेहतर क्वॉलिटी की घास के लिए भी पहाड़ी राज्यों के जंगलों में आग लगा दी जाती है। केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, इन दो राज्यों में आग के मामले ज्यादा सामने आते हैं और इससे वन संपदा को भी काफी नुकसान होता है।
साइंटिस्ट्स का कहना है कि बादल फटने की घटनाओं में कमी लाने के लिए जंगलों की आग पर भी काबू पाने की जरूरत है। सरकार को मॉनसून सीजन से पहले जंगलों में निगरानी बढ़ानी चाहिए, ताकि आग लगने की घटनाएं न हों। बादल फटने पर एक ही इलाके में मूसलाधार बारिश होती है जो अचानक आने वाली बाढ़ और भूस्खलन की वजह होती है। आमतौर पर बादल फटने की घटना तब होती है, जब भारी मात्रा में नमी वाले बादल एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं। ऐसा होने से वहां मौजूद पानी की बूंदें आपस में एक साथ मिल जाती हैं और फिर बरस पड़ती हैं।
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