नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुरेश उपाध्याय) : 1990 में लेह में बादल फटा था और जनधन का भारी नुकसान हुआ था। तब देश में इस बात पर बहुत मंथन हुआ था कि इस तरह की और कोई घटना न हो, इसके लिए कमर कसनी होगी। ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिए हर संभव उपाय करने होंगे और इसमें सरकार के साथ ही जनता की भी भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी। तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। बादल फटने की घटनाओं पर लगाम तो नहीं लगी, इसमें और तेजी जरूर आ रही है। संयुक्त राष्ट्र हर साल क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिए सम्मेलन करता है, लेकिन नतीजा आमतौर पर ढाक के तीन पात ही रहता है। अमीर देश इस मामले में आगे बढ़ना नहीं चाहते और गरीब देशों के पास ऐसी टेक्नॉलजी के लिए पैसा नहीं है, जो प्रदूषण पर लगाम सके।
इस साल भी बरसात का मौसम शुरू होने के साथ ही देश के पहाड़ी राज्यों में बादल फटने का सिलसिला शुरू हो चुका है। पिछले साल की तरह ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अब तक कई जगह बादल फट चुके हैं और जनधन का काफी नुकसान हो चुका है। पिछले साल भी हिमाचल प्रदेश में बादल फटने से भारी नुकसान हुआ था। कई लोगों की जान चली गई थी। तब एक ही दिन में सात जगह बादल फट गए थे। इस बार भी बादल फटने के साथ ही भूस्खलन, बाढ़ और बारिश से देश के कई इलाके बेहाल हैं। देश के पहाड़ी राज्यों, खासकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की हालत इस बार भी बहुत खराब है। केरल के वायनाड में भूस्खलन से भारी नुकसान हुआ है।
बर्बाद हो रहे हैं पहाड़ी राज्य
वैज्ञानिक मौसम के मिजाज में आ रहे उग्र बदलाव की वजह ग्लोबल वॉर्मिग और क्लाइमेट चेंज को बताते हैं। बावजूद इसके, पूरी दुनिया में इस पर लगाम लगाने के ठोस और पर्याप्त प्रयास नहीं हो रहे हैं। देश के पहाड़ी राज्यों में क्लाइमेट चेंज कहर ढा रहा है। क्लाइमेट चेंज के साथ ही यहां पिछले कुछ सालों में विकास के नाम पर जिस तरह से अंधाधुंध निर्माण कार्य हो रहे हैं, वह पहाड़ को बर्बाद करने लगे हैं। डर इस बात का है कि इसके कारण आने वाले समय में पहाड़ का हर इलाका कहीं जोशीमठ न बन जाए। जोशीमठ भूस्खलन के मलबे पर बसा शहर है। बावजूद इसके, यहां निजी और सरकारी स्तर पर बड़े-बड़े निर्माण कर दिए गए। और तो और, शहर के पास एक पनबिजली परियोजना बनाने की भी मंजूरी दे दी गई और इसकी टनल शहर के नीचे से गुजारी जा रही है, वह भी विस्फोट करके।
पर्यटन के नाम पर तबाही
पहाड़ में इस समय पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर बड़े-बड़े होटल, रिसॉर्ट्स और अन्य प्रोजेक्ट्स बना दिए गए हैं। पहाड़ की जमीन इतना बोझ उठाने में सक्षम नहीं है। बहुत ज्यादा लोगों और वाहनों की आवाजाही बढ़ने से पहाड़ों की जलवायु पर भी असर पड़ रहा है और इससे जो अराजकता फैल रही है, वह अलग है। सरकार की ऑल वेदर रोड का जो हश्र हुआ है, वह यह बताने के लिए काफी है कि पहाड़ कितने संवेदनशील हैं। हिमालय का इलाका वैसे भी दुनिया की सबसे नई संरचना है और भूगर्भीय लिहाज से काफी संवेदनशील भी। बावजूद इसके, यहां हजारों बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी गई हैं और स्थानीय प्रशासन को यह सब दिखाई नहीं दिया। शिमला में पिछले साल भूस्खलन से हुए तबाही के बाद कई बहुमंजिला इमारतों के मालिकों को नोटिस दिया गया, लेकिन उनका कहना था कि उन्होंने नक्शा पास होने के बाद ही निर्माण कराया था। यानी पूरा सिस्टम ही बर्बाद कर दिया गया है। फिलहाल लगता तो यही है कि आगे भी बादल फटते रहेंगे, बाढ़ आती रहेगी, भूस्खलन होते रहेंगे और क्लाइमेट चेंज पर बहसें और सम्मेलन होते रहेगे।
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