नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले देश में 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसी बीच, देश के कई राज्यों में नए राज्यपालों की नियुक्ति कर दी गई है। इसमें से कुछेक राज्यपालों को एक से हटा कर दूसरे राज्य में तैनात कर दिया गया है। विधानसभा चुनावों में किसी दल को स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में राज्यापाल की भूमिका बहुत अहम हो जाती है। नव नियुक्त राज्यपालों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एस. अब्दुल नजीर भी शामिल हैं जो राम जन्म भूमि मामले में फैसला सुनाने वाली जजों की पीठ में शामिल थे। उन्हें आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है।
इस नियुक्ति को लेकर राजनीतिक हलकों में कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार इस तरह की नियुक्तियों के जरिए सुप्रीम कोर्ट के जजों को सेवानिवृत्ति के बाद फायदा पहुंचाने का लालच देकर प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। दिलचस्प तथ्य ये है कि, विपक्षी दलों ने बीजेपी को घेरने के लिए जिन दलीलों का सहारा लिया है वे बीजेपी के अपने ही कद्दावर नेताओं दिवंगत अरुण जेटली और मौजूदा सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की हैं।
जेटली और गडकरी की दलीलों की मिसाल
बात 2012 में आयोजित हुए पार्टी के राष्ट्रीय विधि प्रकोष्ठ के अधिवक्ता सम्मेलन की है। इस सम्मेलन में अरुण जेटली ने रिटायरमेंटट के बाद न्यायाधीशों की नियुक्त को गलत ठहराते हुए कहा था कि, इससे न्यायपालिका प्रभावित हो रही है। उन्होंने कहा था कि, दो तरह के जज होते हैं, वे जो कानून जानते हैं, दूसरे वे जो कानून मंत्री को जानते हैं। हम दुनिया का इकलौता देश हैं जहां जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। यहां रिटायरमेंट की एक उम्र दी गई है लेकिन जज सेवानिवृति की उम्र के बावजूद इसके इच्छुक नहीं होते। सेवानिवृत्ति से पहले लिए गए फैसले रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पद की हसरत से प्रभावित होते हैं।
अरुण जेटली ने ये भी कहा था कि, न्यायपालिका में निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के समय मिल रहे वेतन के बराबर पेंशन देने और सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति से न्यायपालिका पर असर पड़ रहा है।
इस कार्यक्रम में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी भी शामिल हुए थे। उन्होंने अपने भाषण में सलाह दी थी कि, जजों के सेवानिवृत्त होने के दो साल बीतने के बाद ही उन्हें कोई नियुक्ति दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा था कि, मेरी सलाह है कि सेवानिवृत्ति के बाद दो सालों (नियुक्ति से पहले) का अंतराल होना चाहिए अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है और एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और ईमानदार न्यायपालिका कभी भी वास्तविकता नहीं बन पाएगी।
जस्टिस नजीर की नियुक्ति पर क्यों उठा सवाल
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अब्दुल नजीर बीती चार जनवरी को ही अपने पद से रिटायर हुए हैं। वे कई महत्वपूर्ण फैसले देने वाली संविधान पीठों का हिस्सा थे जिसमें तीन तलाक की संवैधानिक वैधता, निजता के अधिकार, अयोध्या मामला और हाल ही में केंद्र के 2016 के नोटबंदी निर्णय और सांसदों की अभिव्यक्ति की आज़ादी से संबंधित मामले भी शामिल थे। आपको बता दें कि, जस्टिस नजीर, नवंबर 2109 में अयोध्या मामले में फैसला देने वाली पांच जजों की पीठ के तीसरे ऐसे न्यायधीश हैं, जिन्हें मोदी सरकार ने रिटायरमेंट के बाद किसी अन्य पद के लिए नामित किया है।
अयोध्या मामले पर सुनवाई करने वाली पीठ की अध्यक्षता करने वाले तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा का सदस्य बना दिया गया था जबकि जुलाई 2021 में सेवानिवृत्त हुए जस्टिस अशोक भूषण को उसी साल राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (एनसीएलएटी) का प्रमुख बनाया गया था।
इतिहास में हुई नियुक्तियां
स्वतंत्र भारत के इतिहास में जस्टिस नज़ीर सर्वोच्च न्यायालय के तीसरे सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं जिन्हें राज्यपाल बनाया गया है। इससे पहले, 1997 में जस्टिस फातिमा बीवी को एचडी देवेगौड़ा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से उनकी सेवानिवृत्ति के पांच साल बाद राज्यपाल बनाया था लेकिन मोदी सरकार में ऐसा दूसरी बार हुआ है जब रिटायरमेंट के तुरंत बाद शीर्ष अदालत के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को राज्यपाल बनाया है। 2014 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया था। इस फैसले की ये कहते हुए काफी आलोचना हुई थी कि उन्हें सत्तारूढ़ दल की मदद करने का इनाम मिला है।
सुप्रीम कोर्ट के कई जजों से खुद किया था विरोध
लाइव लॉ के मैनेजिंग एडिटर मनु सेबेस्टियन ने एक न्यूज़ वेबसाइट पर लिखे अपने लेख में इस बारे में कई ठोस जानकारियां दीं। अपने लेख में उन्होंने बताया कि, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन (2018) न्यायाधीश जस्टिस चेलमेश्वर ने घोषणा की थी कि वे सेवानिवृत्ति के बाद सरकार की ओर से मिलने वाली किसी भी नियुक्ति को स्वीकार नहीं करेंगे। उनके साथी जज जस्टिस कुरियन जोसेफ ने भी इस तरह की किसी भी नियुक्ति को स्वीकारने को लेकर अनिच्छा प्रकट की थी। इन दोनों का ही कहना था कि न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक दूसरे के प्रति प्रशंसा का भाव रखने के बजाय एक दूसरे पर निगरानी रखनी चाहिए। उन्होंने कहा था कि, सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली नियुक्तियां अक्सर न्यायपालिका की स्वतंत्रता में गिरावट की वजह बन सकती हैं। लेख में दी गई जानकारी के अनुसार, जस्टिस एस. एच कपाड़िया और जस्टिस टी. एस ठाकुर ने सुझाव दिया था कि, किसी भी वेतनभोगी नियुक्ति और रिाटयरमेंट के बीच कम से कम से तीन साल का कूलिंग पीरियड होना चाहिए।
फोटो सौजन्य-सोशल मीडिया