चंडीगढ़ ( गणतंत्र भारत के लिए जसविंदर बरार) : पंजाब में आम आदमी पार्टी ने अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में भगवंत मान के नाम की घोषणा कर दी है। कांग्रेस ने हालांकि आधिकारिक तौर पर किसी चेहरे को सामने नहीं किया है लेकिन संकेत तो मौजूदा मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के पक्ष में ही जाते दिख रहे हैं। अभिनेता सोनू सूद ने एक वीडियो ट्वीट में पंजाब के मुख्यमंत्री की पहचान चरणजीत सिंह चन्नी जैसी बताई है। इशारा साफ है, लेकिन औपचारिक रूप से कुछ नहीं।
पहले के चुनावों का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि पंजाब ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर वोट नहीं किया है। एक तरह से उसे देश के सबसे बड़े सेकुलर राज्य के रूप में समझा जा सकता है। राज्य में चुनाव हमेशा विकास, रोजगार और स्थानीय मुद्दों पर ही लड़ा गया है। राज्य मेंदलित वोटों का गणित करीब 32-34 फ़ीसदी के आसपास है जबकि जाट सिखों की आबादी 25 फ़ीसदी के आसपास है। दलित वोटों के आधार पर राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी राज्य में कभी भी 9 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल नहीं कर पाई। पिछले चुनाव में तो उसे 2 प्रतिशत वोट ही मिले थे और वो एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। इस बार पार्टी ने अकाली दल के साथ चुनावी गठबंधन किया है।
पंजाब में राजनीतिक स्थिति को देखें तो यहां कांगेस, आम आदमी पार्टी, अकाली दल-बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी के अलावा किसानों की पार्टी सर्वजन समाज पार्टी चुनावी मैदान में हैं।
हालिया चुनावी सर्वेक्षणों और राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए राज्य में दलित राजनीति को आधार बनाते हुए इन चुनावों में एक नया प्रयोग किया जा रहा है। कांग्रेस ने पिछले साल कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया था। चन्नी के दलित होने को पार्टी ने एक बड़ा ‘यूएसपी’ करार दिया था। उसी से जाहिर हो गया था कि पंजाब में इस बार सत्ता का दांव दलित चेहरे पर खेला जाएगा।
दो मुख्य राजनीतिक दल जो सत्ता की दौड मे आगे दिख रहे हैं उन्होंने राज्य के जातीय गणित को सामने रखते हुए ही अपने चेहरों को तय किया है। मौजूदा मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी एक दलित सिख हैं जबकि आम आदमी पार्टी के भगवंत मान की पहचान जाट सिख की हैं। संख्यात्मक गणित में तो चन्नी, भगवंत मान पर भारी दिखते हैं। भगवंत मान के पक्ष में जो चीज दिखती है वो है वे उस वर्ग से आते हैं जिस वर्ग का पंजाब की राजनीति में बहुत दबदबा है।
कितना चलेगा कांग्रेस का दलित एंगल
कांग्रेस ने जब चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तो उसके बाद इस बात को जोर शोर से प्रचारित किया गया कि पार्टी ने एक दलित को मुख्यमंत्री बनना कर पंजाब की राजनीति में पहली बार ऐसा प्रयोग किया है। राज्य में दलित सिखों की आबादी भी सबसे ज्यादा है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर राजाराम मानते हैं कि पंजाब ने कभी भी धर्म और जाति की सीमाओं में खुद को नहीं बांधा है। इसी कारण यहां दलितो के वोटबैंक जैसी कोई चीज़ नहीं है। दलित सिख भी हैं, दलित हिंदू और दलित इसाई भी।
उन्होंने कहा कि, दलित सिख आमतौर पर अकालियों को वोट देते रहे हैं लेकिन दलित हिंदू कांग्रेस के समर्थक रहे हैं। पंजाब में एक जाति के रूप में दलित की पहचान कम से कमतर होती जा रही है। दूसरे, पंजाब में आर्यसमाज का बड़ा जोर रहा, उसके कारण जाति व्यवस्था वैसे ही कमजोर हुई है। पंजाब का दलित भी दूसरे वोटरों जैसा ही तमाम मुद्दों पर बंटा हुआ है। उसे वोटबैंक नहीं कहा जा सकता।
पिछले चुनावो में पंजाब के वोटिंग पैटर्न को देखा जाए तो एक बात समझ में आती है वो ये कि , पंजाब में न तो दलित, दलित की तरह वोट करता है और न हिंदू, हिंदुत्व पर वोट करता है। बीजेपी अकेले भी जब पंजाब में लड़ती थी, तब भी वो कभी छह फ़ीसदी से ज्यादा वोट नहीं ले पाई। प्रोफेसर राजाराम का कहना है कि, पंजाब में मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते हैं। यहां बेरोज़गारी से लेकर खेती, किसानी और बेअदबी जैसे विषय मुद्दे बन सकते हैं लेकिन जाति और धर्म मुख्य मुद्दे नहीं बन पाते।
पंजाब की राजनीति का अहम फैक्टर
ये सही है कि पंजाब की राजनीति में जाति और धर्म जैसे मुद्दों को चुनावी मुद्दे में तब्दील कर पाना मुश्किल होता है लेकिन राज्य की राजनीति में वो अपनी पहचान को लेकर जरूर बहुत संजीदा रहता है। दूसरी वजह, यहां जाट सिखों का काफी दबदबा है और वे समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह ही राजनीति में भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ऐसे में देखने की बात तो ये होगी कि पंजाब का राजनीति क्या अपनी पारंपरिक लकीर पर ही चलती है या वो किसी नए प्रयोग को आजमाती है।
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