नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए लेखराज ) : काफी समय बाद ऐसा देखने को मिला कि हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनावों में राजनीति का एजेंडा कांग्रेस पार्टी ने सेट किया और विधानसभा चुनाव की राजनीति उसी के इर्द गिर्द घूमती रही। संसद के नए भवन के उद्घाटन को लेकर कांग्रेस ने फिर एक मांग की है और इसका असर भारत की राजनीति में साफ-साफ दिखने लगा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सबसे पहले इस विषय को उठाया कि संसद की नई इमारत का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं बल्कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से कराना चाहिए। शुरू में कुछ हिचकिचाहट के बाद एक-एक कर देश के 19 विपक्षी दल इस विषय पर एक मंच पर आकर खड़े हो गए।
अकाली दल, बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस और बहिन जी का पार्टी बहुजन समाज पार्टी को छोड़ दें तो कमोवेश हर विपक्षी दल राहुल गांधी की मांग के साथ खड़ा नज़र आया। इन सभी दलों ने 28 मई को उद्घाटन समारोह के बहिष्कार का निर्णय लिया है।
राहुल गांधी ने अपने बयान में आग्रह किया था कि लोकसभा और राज्यसभा के साथ राष्ट्रपति संसद का अभिन्न होता है लिहाजा संसद के नए भवन का उद्घाटन महामहिम के हाथों से होना ही श्रेयस्कर है और उन्हीं से उसे कराया जाना चाहिए। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी उसके लिए तैयार नहीं थी। धीरे-धीरे इस मांग में और आयाम जुड़ने लगे और दलित और अनुसूचित जाति का एंगल भी इसमें शामिल हो गया।
बात तब और बिगड़ी जब उद्घाटन समारोह में मौजूदा राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति के साथ पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भी न्यौता नहीं दिया गया। संयोग से मौजूदा राष्ट्रपति अनुसूचित जनजाति से आती हैं जबकि पूर्व राष्ट्रपति अनुसूचित जाति के हैं।
अब संसद का नए भवन का उद्घाटन अगड़े- पिछड़ों की लड़ाई का विषय बन गया। इसी बीच, इस लड़ाई में बहन मायावती की इंट्री होती है और वो भी बीजेपी के बचाव में। बहन जी ने एक ट्वीट किया और कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को संसद भवन की नई इमारत के उद्घाटन में नहीं बुलाया तो क्या हुआ। इसे आदिवासी समाज के अपमान के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने लगे हाथ कांग्रेस को भी ये नसीहत दे डाली कि वो तो इस मामले में चुप ही रहे तो बेहतर है।
पहल क्यों बनी महत्वपूर्ण ?
विपक्षी एकता का आधार
राहुल गांधी की इस मांग ने जो एजेंडा सेट किया उससे दो बड़ी बातें हुईं। पहली, देश के कमोवेश समूचे विपक्ष को एक मंच पर एक मांग के साथ जमा होने का अवसर मिला। ये अवसर आगे विपक्षी एकता का आधार तय कर सकता है और देश में 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में एक मजबूत विपक्षी गठबंधन की शक्ल भी ले सकता है। राजनीति विज्ञानी प्रोफेसर हर्षित कुमार मानते हैं कि, ‘मोदी सरकार ने अपने अड़ियल रुख के चलते विपक्षी एकता को एक वजह दे दी। ये वजह उसके लिए 2024 में बड़ी गलती साबित होने जा रही है।’ वे कहते हैं कि, ‘सुप्रीम कोर्ट के अध्यादेश के खिलाफ भी विपक्षी दलों की लामबंदी में हिचकिचाहट थी लेकिन यहां तो मामला साफ साफ बीजेपी की हठधर्मिता के खिलाफ है।’
कांग्रेस के आरोपों को धार
कांग्रेस हमेशा से आरोप लगाती रही है कि बीजेपी अगड़ों की पार्टी है, पैसे वालों की पार्टी है, उसे गरीबों, पिछड़ों और आदिवासियों की कोई परवाह नहीं है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से उद्घाटन न कराके बीजेपी ने कांग्रेस के इन आरोपों को नई धार दे दी है। प्रोफेसर हर्षित के अनुसार, ‘पक्ष-विपक्ष की इस धड़ेबंदी में मायावती के कूदने से लड़ाई और ज्यादा टेढ़ी होने वाली है। मायावती पहले ही लगातार अपना जनाधार खोती चली आ रही हैं और अब तो उनकी ब्रांडिंग खुल कर बीजेपी के पाले वाले नेताओं में होगी। सवाल अब उनके ही राजनीतिक अस्तित्व का है।’
प्रोफेसर हर्षित कुमार, देश की राजनीति किस दिशा में जा रही है इसका संकेत राहुल गांधी के उन बयानों में तलाशने का बात कहते हैं जिसमें उन्होंने कर्नाटक की जनसभाओं में ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी’ वाली बात कही थी। प्रोफेसर कुमार मानते हैं कि देश में अगला आम चुनाव सोशल इंजीनियरिंग के इसी फार्मूले और जनता के मु्द्दों पर ही लड़ा जाएगा। देश अब हिंदू-मुस्लिम, मंदिर मस्जिद, जिहाद और जुमलों की राजनीति से ऊब चुका है। उसे अब तलाश अपने असल मुद्दों के सवालों के जवाब की है।
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