पटना 10 अगस्त ( गणतंत्र भारत के लिए राजेश कुमार ) : बिहार में खेला हो गया। नीतीश कुमार के ऊपर कोई भी आरोप लगे लेकिन जिस तरह से उन्होंने राजनीति के मैदान में बड़े-बड़े धुरंधरों को मात दे दी उससे तो यही जाहिर होता है कि राजनीति में असली चाणक्य तो वे ही हैं।
राजनीति असंभावनाओं को संभावनाओं में बदलने का खेल है लेकिन देश के मौजूदा हालात में बिहार की राजनीति में जिस तरह से कुर्सी बिना हिले पालाबदल हुआ वो वाकई बहुत अहम है। 2017 के धुर विरोधी नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव फिर से एकसाथ खड़े थे।
बीजेपी से नीतीश के अलगाव के बाद जैसा कि आमतौर पर होता है गिले- शिकवे सब जाहिर हुए। नाराजगी के लिए दलीले खोज ली गईं। नीतीश ने अपने अपमान को गिनाया तो बीजेपी ने अपने बड़प्पन के कसीदे पढ़े।
नीतीश अब तमाम उन दलों के पाले में खड़े हैं जो कल तक उन्हें विपक्ष में दिखते थे। बिहार में अब विपक्ष के नाम पर सिर्फ बीजेपी ही अकेली पार्टी रह गई। नीतीश के हाथ में फिर से बिहार की कमान है।
नई सरकार के सामने 2024 के राष्ट्रीय चुनाव और फिर 2025 में राज्य विधान चुनाव की परीक्षा है। ये परीक्षा कई मायनों में बहुत खास है और अगर सब कुछ ठीकठाक चला तो बिहार एक बार फिर से देश की राजनीति में एक नई प्रयोगशाला के तौर पर सामने आ सकता है।
बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग का तोड़
जाने माने समाजविज्ञानी बद्री नारायण ने कुछ महीनों पहले यूपी के चुनाव के वक्त कहा था कि बीजेपी ने हिंदू वोटबैंक का इस तरह से ध्रुवीकरण किया है जिसमें जातीय समीकरण फेल होते जा रहे हैं। इसी कारण बीजेपी को अगड़ों के साथ पिछड़ों का वोट भी मिलने लगा है। यूपी के नतीजों से उनकी ये बात साबित भी हुई। मायावती का इंटेक्ट वोटबैंक भी भेद दिया गया और आज उनकी राजनीति ही शून्य पर पहुंच गई। अखिलेश यादव के यादव- मुस्लिम समीकरण को भी गहरा धक्का लगा।
बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने बिहार में सोशल इंजीनियरिंग के प्रयोग को एक नया रूप दिया है। कई मुद्दे ऐसे रहे जिस पर बीजेपी और नीतीश कभी एक मत नहीं रहे। जातीय जनगणना, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, अग्निवीर और बिहार को विशेष राज्य का दर्जे का सवाल ऐसे ही तमाम मसले थे। इन सारे प्रश्नों पर वैचारिक स्तर पर नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव के ज्यादा करीब नजर आते थे। देखा जाए तो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ बिहार के सामाजिक समीकरण तो साधने वाला एक बड़ा वोटबैंक खड़ा रहा। इसी कारण, हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के क्रम में पिछड़े और अति पिछड़े समाज को एकजुट करना और मुसलमानों का भय दिखा कर हिंदू वोटों को एक करने की बीजेपी की रणनीति यहां फेल होती चली गई।
क्या सोनिया गांधी है सूत्रधार ?
बताय़ा जा रहा है कि नीतीश और तेजस्वी को करीब लाने में मुख्य किरदार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का है। सोनिया गांधी ने ही नीतीश कुमार को और फिर तेजस्वी यादव को करीब लाने में सूत्रधार का काम किया। सरकार की स्थिरता को मजबूत करने के लिए उन्होंने ने ही अपनी पार्टी के साथ वामपंथी दलों को भी इस गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए राजी किया। सूत्रों के अनुसार, सोनिया गांधी किसी भी हाल में 2024 में बीजेपी के सामने एक मजबूत विपक्ष चाहती हैं और बिहार उसकी पहली प्रयोगशाला है। अगर ये प्रयोग यहां सफल रहता है तो दूसरे राज्यों मे भी 2024 से पहले ऐसे गठबंधन तैयार किए जा सकते हैं।
क्षेत्रीय दलों की एकजुटता से दिल्ली का रास्ता
आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने पत्रकारों से बात करते हुए राष्ट्रीय़ राजनीति में क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की बीजेपी की रणनीति को जोरशोर से उठाया। उन्होंने बताया कि बीजेपी ने जिस किसी भी दल से हाथ मिलाया उसे क्षेत्रीय राजनीति में खत्म कर दिया। उन्होंने कहा कि यही वजह कि हिंदी पट्टी में आज बीजेपी के पास कोई भी सहयोगी दल नहीं रह गया है। तेजस्वी ने स्पष्ट किया कि बीजेपी के खिलाफ सभी विपक्षी दलों की एकजुटता ही दिल्ली का रास्ता साफ करेगी।
आसान नहीं है दिल्ली का राजपथ
वरिष्ठ पत्रकार मैथ्यू जॉर्ज कहते हैं कि, बीजेपी की मजबूती का एक बड़ा कारण उसके सामने बौने विपक्ष का होना है। नरेंद्र मोदी के सामने अगर एक मजबूत विपक्ष होगा तो बीजेपी के लिए भी राह आसान नहीं होगी। लेकिन सवाल तो यही है कि क्या विपक्ष अपनी इस कमी को स्वीकारेगा। वे कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों को ये अच्छे से पता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बिना कोई गठबंधन कारगर साबित नहीं होने वाला। ममता बनर्जी से लेकर, शरद पवार सभी ने खुद को आजमा लिया। मैथ्यू कहते हैं कि बीजेपी से पहले देश में विपक्ष की राजनीति का आधार कांग्रेस विरोध हुआ करता था। समाजवादी हों या जेपी की संपूर्ण क्रांति सबके मूल में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने का ही विचार था। फर्क सिर्फ इतना है कि, आज कांग्रेस की जगह बीजेपी खड़ी है। मैथ्यू मानते हैं कि सोनिया गांधी की पहल पर अगर सचमुच विपक्षी एकता की एक नई कोशिश शुरू हुई है तो उसमें सबसे बड़ी चुनौती भी यही होगी कि उस एकजुटता में कांग्रेस की जगह क्या होगी ?
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया