पौड़ी (उत्तराखंड) 15 अक्टूबर (गणतंत्र भारत के लिए व्योमेश चंद्र जुगरान): गुलदार यानी तेंदुओं की दशहत के कारण इस बार पौड़ी की प्रसिद्ध रामलीला में दर्शकों का वैसा रेला नहीं उमड़ा। ऐतिहासिक रामलीला के मंचन का ये 116 वां साल था। आम तौर पर बड़ी संख्या में खासकर दिल्ली के प्रवासी पहाड़ी हर साल रामलीला देखने पौड़ी पहुंचते हैं। लेकिन इस बार गुलदारों के खौफ ने उनके पांव रोक दिए। जो लोग गए भी, वे देर रात तक चलने वाले मंचन का वैसा आनंद नहीं उठा पाए। शहर के कुछ मोहल्लों में गुलदार देखे जाने से लोग अंधेरा होते ही अपने घरों में दुबकने को मजबूर हो गए। जिला प्रशासन को एडवाइजरी जारी करनी पड़ी कि मॉर्निंग वॉक हो या ईवनिंग लोग कंडोलिया, श्रीनगर रोड और कोटद्वार रोड इत्यादि जगहों पर जाने से बचें और यदि जाएं भी तो झुंड में जाएं।
ये तो भीड़-भाड़ वाले शहरों का हाल है। जरा गांवों की सोचें जहां हर हफ्ते कोई न कोई मनुष्य तेंदुए का शिकार हो रहा है। गढ़वाल और कुमाऊं के गांवों में जंगली जानवरों और मनुष्यों के बीच इस समय संघर्ष चरम पर है। गांवों से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के पीछे इन जानवरों, खासकर गुलदारों का आतंक एक बड़ा कारण है। पहले ही अनेकानेक कारणों से खेती और पशुपालन से विमुख लोग तेंदुए के रूप में लगातार मौत का सामना करने को मजबूर हैं। आज उनकी गौशालाओं में जानवर नहीं हैं। ये स्थिति भी भूखे बाघ के मनुष्य पर झपटने का कारण बन गई है। विडंबना देखिए, सरकारें बाघ संरक्षण के आगे किसी किस्म का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। पिछले सात साल में पौड़ी जिले के करीब 186 गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। हालांकि इसकी कई वजहें हैं पर जंगली सूअर, बंदर, भालू और तेंदुओं के आतंक ने गांवों का जीवन नर्क बना दिया है। कई गांवों में खेती बंजर हो चुकी है। जब लोग खेती नहीं कर पा रहे और मवेशी नहीं पाल रहे तो क्या करेंगे गांव में रहकर! कोई व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों से लड़कर यदि गांव में ठहरना भी चाहे तो गुलदार से कैसे लड़े!
क्या कहते हैं विशेषज्ञ ?
उत्तराखंड में अब तक 40 से अधिक नरभक्षी तेंदुओं को अपनी बंदूक से ढेर कर चुके पौड़ी के जाने-माने शिकारी जॉय हुकिल मानते हैं कि गुलदार कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे हैं। उनकी गिनती का कोई पुष्ट आंकड़ा सामने नहीं है। संरक्षण के नाम पर पहले ये तो तय हो कि हम कितने गुलदारों को पाल सकते हैं। इनकी काउंटिंग तो कराएं। हुकिल का कहना है कि सरकार को बाघ और तेंदुए में फर्क करना पड़ेगा। दोनों के लिए संरक्षण की अलग-अलग पॉलिसी बनानी होगी। आखिर सरंक्षण उसी चीज का तो होगा जो कम हो रही हो। तेंदुए तो लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
पहाड़ों में पारंपरिक बाघ हमेशा से सहजीवन का प्रतीक रहा है। वे यहां के लोकजीवन से जुड़े लोकगीतों और लोककथाओं का भी पात्र है। और शायद इसीलिए पशुओं की छानी से उसका गाय, बैल, बछड़े, बकरी इत्यादि ले जाना ग्रामीणों को गलत नहीं लगता था। चूंकि तब पर्यावरण के संकटों से ऐसा सामना नहीं था। गांव आबाद थे तो छानियों में मवेशी भी थे। गांव से लगे जंगलों में जीवों का एक संसार बसता था। इनमें कई जीव गांवों में मनुष्य के होने की शर्त पर जिन्दा थे। ये सारा संतुलन मानव और जानवरों के बीच एक अनुशासन लाता था। पर अनेकानेक कारणों से अब ये सारा संतुलन और अनुशासन गड़बड़ा चुका है। बाघ अब अपने और मनुष्य के बीच रक्षा कवच के रूप में जंगल के अस्तित्व की गारंटी नहीं रह गया है बल्कि बस्तियों में आ धमका आदमखोर बन चुका है।
पौड़ी, बागेश्वर और कोटद्वार जैसे पहाड़ी शहरों में रोज शाम को चार-पांच तेंदुए आ जाते हैं। शहरों में उन्हें आसान शिकार मिल जाता है। गाय, कुत्ते और सूअरों से उनका काम चल जाता है। तेंदुओं की संख्या अधिक होने के कारण जंगल में उनके लिए शिकार नहीं है।
अखबारों में रोज गुलदारों के हमले की खबरें हैं। गुलदारों के खौफ ने गांव और आसपास भूतों व चुड़ैलों का डर मिटा डाला है। पहले भूतों बारे में खूब किस्से होते थे। लोग डराते भी थे कि उधर नहीं जाना वहां भूत है। लेकिन आज लोग शहर की हद से लगी किसी सुनसान जगह पर जाने पर गुलदार के नाम से कांपने लगते हैं।
आखिर, रास्ता क्या हो ?
इस सवाल पर जानकारों का मानना है कि शिकारी, पीड़ित लोग, ग्राम प्रधान और वाइल्ड लाइफ एक्टीविस्ट चाहे कुछ भी बोलें, कुछ जिम्मेदार लोगों को इस मुद्दे पर एकसाथ बैठना होगा और गंभीरता से सोचना होगा। फिर इसमें से कुछ चीज निकालनी होगी। असल में बाघ संरक्षण के नाम पर दिमाग में एक बात बैठ चुकी है कि वे कम हो रहे हैं। जबकि सच ये है कि सरकार को पता नहीं ही है कि गुलदार कितने हैं। कोई सेंसस तो हुआ नहीं है। गिनती का कोई साइंटिफिक प्रूफ नहीं है। सच्चाई ये है कि गुलदारों की संख्या बेतहाशा बढ़ चुकी है। इन्हें बचाना है तो क्या इनके भोजन का इंतजाम नहीं करना पड़ेगा! गुलदार ने तो मांस ही खाना है, घास तो खानी है नहीं। उसके पास कोई ऑप्शन भी नहीं है। अगर इनका संरक्षण चाहते हैं तो जहां से संरक्षण की अवधारणा आई है, उसके तौर-तरीकों का अनुपालन करना होगा। गुलदारों की बॉडी में चिप लगाई जाए। कॉलर लगाएं जाएं ताकि पता तो लगे कि कितने हैं, कहां हैं! कहीं वारदात करें तो पता तो चले कि गुलदार कहां पर है। फिर उसे वहीं ट्रैंकोलाइज किया जाए।
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