नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए सुरेश उपाध्याय) : गर्मियों के मौसम में जंगलों में आग लगने की घटनाओं में तेजी आ जाती है, लेकिन इस बार उत्तराखंड के जंगलों में आग जबरदस्त कहर बरपा रही है। राज्य सरकार और इसके मुखिया को भी मामले की गंभीरता तब महसूस हुई जब जंगल की आग ने नैनीताल को घेर लिया और आग से निपटने के लिए सेना को बुलाना पड़ा।
इससे पहले बेतालघाट, खैरना और कोसी घाटी के जंगलों में आग काफी कहर बरपा चुकी थी। इसकी वजह से कई जगह फलदार पेड़ और खेती बर्बाद हो गई और स्थानीय लोगों का घरों से निकलना तक मुश्किल हो गया। कई इलाकों में आग रिहायशी इलाकों के नजदीक भी पहुंच गई।
जंगलों की आग के कारण वन्य पशु आबादी की ओर आ गए। जंगलों की आग ने इस बार उत्तराखंड के 11 जिलों को चपेट में लिया है और अब तक जंगलों में आग लगने की करीब 600 घटनाएं हुई हैं और लगभग 700 हेक्टेयर जंगल इसकी चपेट में आ गए हैं। प्रभावित इलाकों में गहरा धुंआ छाने से लोगों को सांस लेने में भी दिक्कत हो रही है।
जंगलों की आग के लिहाज से पहाड़ों में मध्य फरवरी से मध्य जून तक के समय को काफी संवेदनशील माना जाता है। इस समय जंगलों में नमी काफी कम हो जाती है और सूखे पत्तों, झाड़ियों में आग लगने की आशंका बढ़ जाती है। इस बार पहाड़ी इलाकों में बारिश कम होने के कारण जंगलों में आग ज्यादा भड़की। जहां तक आग लगने की वजहों का सवाल है, लापरवाही, शरारत और घास के लिए जंगलों में आग लगाना, इसके मुख्य कारण हैं।
सूत्र बताते हैं कि लीसा माफिया भी जंगलों की आग के लिए जिम्मेदार है। लीसा चीड़ के पेड़ों से निकलने वाला एक तरल पदार्थ है। इससे तारपीन तेल बनाया जाता है। लीसा चीड़ के पेड़ों पर कट लगाकर निकाला जाता है। लीसा माफिया पेड़ों से ज्यादा लीसा निकालने के लिए उन पर तय मानकों से ज्यादा गहरे कट लगा देते हैं। सूत्रों का कहना है कि ऐसे पेड़ नजर में न आएं, इसके लिए माफिया भी जंगलों में आग लगा देते हैं। नैनीताल जिले के जंगलों में चीड़ के पेड़ों पर गहरे कट लगाने की शिकायत स्थानीय लोगों ने प्रशासन से कई बार की, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया।
हर साल अरबों का नुकसान
जंगलों में लगने वाली आग से हर साल देश को करीब 1400 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान होता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के करीब 70 फीसदी जंगलों में हर साल आग लग जाती है और इससे भारी नुकसान होता है। पर्यावरण मंत्रालय और विश्व बैंक द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2003 से 2016 के बीच देश के जंगलों में लगी आग का कुल 40 प्रतिशत उत्तर-पूर्व के 20 जिलों के हिस्से में आता है।
मध्य भारत के जंगल भी आग से ज्यादा प्रभावित होते हैं। जंगलों की आग का असर यह हो रहा है कि हर साल करोड़ों की वन संपदा तो नष्ट हो ही रही है, पर्यावरण और वन्य पशुओं पर भी बुरा असर पड़ रहा है। इसके साथ ही पेड़ों के नष्ट होने से उत्तराखंड में जल संकट बढ़ता जा रहा है और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जंगलों की आग के कारण पहाड़ी इलाकों में बादल फटने की घटनाएं भी हर साल बढ़ रही हैं और ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं।
कैसे रुके जंगलों की आग?
पर्यावरणविद् कहते हैं कि जंगलों को सिर्फ सरकारी तंत्र के भरोसे रहकर आग से नहीं बचाया जा सकता। इसके लिए स्थानीय लोगों को जागरूक करने के साथ ही मजबूत सूचना तंत्र का विकास करना होगा। इस तरह की एक पहल पर्यावरण प्रेमी गजेंद्र पाठक की अगुवाई में अल्मोड़ा जिले के मानिला क्षेत्र के ग्रामीणों ने की है और मानिला-स्याहीदेवी क्षेत्र में सैकड़ों हेक्टेयर जंगलों को आग से बचाया है। पाठक ने फोन और वाट्सऐप आदि की मदद से 20 गांवों की जनता और वन विभाग के कर्मचारियों को जोड़ा है। अगर इनमें से किसी को भी कहीं जंगल में आग लगती दिखाई देती है तो पूरे ग्रुप में सूचना दे दी जाती है और जो भी सदस्य मौके के नजदीक होते हैं, वह तुरंत आग बुझाने के लिए पहुंच जाते हैं। इस काम में स्थानीय गांवों की महिलाओं के साथ ही बच्चे भी बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं।
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