Homeपरिदृश्यटॉप स्टोरीएक अभिशप्त भाषा की व्यथा कथा.....!

एक अभिशप्त भाषा की व्यथा कथा…..!

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नई दिल्ली,14 सितंबर ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : ये कोई लेख नहीं है और न ही कोई रिपोर्ट है। ये एक अनुभव है। एक भाषा के साथ तय फासलों की जद्दोजहद है। मैं नाम देना चाहता था लेकिन वे अपना नाम देने से परहेज कर रहे हैं। केंद्र सरकार में बड़े आला अधिकारी रहे हैं और देश की सर्वोच्च मानी जाने वाली सेवा में चयनित होकर केंद्र और राज्य सरकार को अपनी सेवाएं दे चुके हैं। इंसान बेहद ज़हीन और खांटी देसी टाइप के। हिंदी दिवस पर लेख लिखने की सोच रहा था लेकिन दिमाग में था कि क्या लिखा जाए। एक रवायत जैसी बात बन गई। हर साल हिंदी दिवस आता है और रस्म अदायगी के साथ बिदा हो जाता है। हिंदी का कुछ भला होता हो, ऐसा लगता तो नहीं।

इसी क्रम में बात चली तो ये अनाम आईएएस अफसर कुछ ऐसी बातों की चर्चा करने लगे जो वास्तव में हर हिंदी वाला जीता है, उस सच से मुंह चुराने की कोशिश करता है और जीवन भर एक गुलाम किस्म की मानसिकता में जीता है। मैंने सोचा आज के दिन उसी कहानी को सुनने का वक्त है और साथ आपको को भी सुनाने का। शब्द भले मेरे हैं लेकिन बताने वाले वे व्यक्ति हैं जो यूपी के एक छोटे से गांव से निकल कर भारत सरकार के शीर्ष अफसरों में शामिल हुए। हिंदी को जीते हुए बहुत कुछ अनुभव किया। आईएएस अफसरों और सत्ता के शीर्ष पर मौजूद वर्ग में अंग्रेजी को लेकर मौजूद गुलाम सोच और हिंदीभाषियों की खुद की दरिद्र मानसिकता को समझा और महसूस किया।

 

आगे की कहानी, उन्हीं की जुबानी

मैं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छोटे से गांव में पैदा हुआ। पिता जी गांव के स्कूल में ही मास्टर थे। पढ़ाई वहीं गांव के स्कूल में हुई। गांव के स्कूल में टाढ-पट्टी हुआ करती थी, तख्ती पर दुद्धी से लिखना होता था। कॉपी पांचवीं के बाद मिली। अंग्रेजी तो विषय था ही नहीं। मिडिल के बाद बनारस आ गया। क्वीन्स कॉलेज जो सरकारी इंटर क़ॉलेज था उसमें दाखिला लिया। अंग्रेजी का ए वहीं पढ़ा। खैर, इंटर के बाद बनारस हिंदू युनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया। विज्ञान का विद्यार्थी था। ग्रेजुएशन की सारी अच्छी किताबें सब अंग्रेजी में ही थीं बड़ी मुश्किल थी। अंग्रेजी मुझे उतनी आती नहीं थी। जैसे-तैसे पढ़ता था। इस दौरान मुझे ऐसा लगा कि मैं अकेला नहीं था जिसके सामने इस तरह की परेशानी थी। तमाम बच्चे थे। कई तो शहरों के पढ़े-लिखे भी थे।

खैर, गांव के गुरू जी ने डंडे के जोर पर जो दिमाग में डाला था उसके कारण गणित का बेस मजबूत था। इंटर कॉलेज में भी उसी आधार को और मजबूती मिली। ग्रेजुएशन के दौरान ही मेरा चुनाव आईआईटी में हो गया। इतनी अंग्रेजी आने लगी थी कि पर्चे को समझ पाया और सवालों के जवाब लिख पाया।

लेकिन शायद मद्रास आईआईटी में ही मुझे पहली बार महसूस हुआ कि हिंदी कितनी विपन्न है। सारी किताबें, शोध प्रबंध, पढ़ाई का माध्यम और सहपाठियों में गैर हिंदी भाषियों की बहुलता सारी मार एक साथ पड़ी।

हिंदी ही आती थी तो कक्षा हो या सहपाठी, मैं बहुत कम बोलता था। थोड़े से उत्तर भारतीय छात्र थे उनसे थोड़ी बहुत बातचीत हो जाती थी। उनमें से भी जो अंग्रेजी जानते थे वे अंग्रेजी में ही बात करना पसंद करते थे। अंग्रेजी को लेकर मेरी विवशता बार-बार मुझे बहुत हीन साबित करती थी।

वक्त के साथ बहुत बदला। अंग्रेजी का मेरा ज्ञान मजबूत हुआ लेकिन मैं उस भाषा के तार अपनी सहजता के साथ कभी भी नहीं जोड़ पाया।

आईआईटी से बीटेक होते-होते मेरे मन में आईएएस बनने का खयाल आने लगा। परीक्षा में बैठा और पहले ही प्रयास में सफल भी हो गया। परीक्षा अंग्रेजी में दी क्योंकि वही भाषा अब मेरे लिए ज्यादा सहज हो चुकी थी। विज्ञान के विषयों के साथ तो मानो हिंदी का कोई सरोकार ही नहीं था। किताबें, नोट्स, शोध सब कुछ अंग्रेजी में। हिंदी में तो कोई काम ही नहीं हुआ।

हमें हिंदी दिवस क्यों मनाना पड़ता है। देश में शायद ही दूसरी भाषाओं के लिए ऐसा कोई दिवस मनाया जाता हो। मनाया भी जाता है तो पता नहीं। दरअसल, हिंदी की इस दुर्दशा के लिए खुद हिंदी वाले ही जिम्मेदार हैं। देश की दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में अपनी भाषा और संस्कारों को लेकर काफी कुछ सकारात्मकता है, हिंदी में नहीं। हम हिंदी दिवस मना रहे हैं, सरकारी कार्यालयों में पखवाड़े मनाते हैं। ये क्या है सब गुलाम मानसिकता और हिंदी की विपन्नता का थोथा प्रदर्शन है। बताइए हमारे बच्चों को क्यों हिंदी पढ़नी चाहिए, क्या मिलेगा उन्हें, ढंग की कोई नौकरी भी नहीं देगा चाहे कितनी भी प्रतिभा क्यों न हो। हमने-आपने हिंदी का हाल देखा है, झेला है इसीलिए किसी ने क्या अपने बच्चों को हिंदी में पढ़ाया? आज बच्चे एक पैरा हिंदी में ढंग से लिख पाएंगे इसमें भी शक है।

कभी सोचा है ऐसा है क्यों ? इस देश में भाषा हमेशा से समाज में इंसान के कद को परिभाषित करती रही है। कभी समाज का कुलीन संस्कृत बोलता था। पंडितों की भाषा संस्कृत हुआ करती थी। मुसलमान आए तो फारसी आ गई। अंग्रेज आए तो वे अंग्रेजी ले आए। मैकाले ने जो भाषण ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमंस में दिया उसे जरूर सुनिए। समझ में आ जाएगा, अंग्रेज का दिमाग कितना शातिर था। भारतीय शिक्षा से लेकर संस्कार तक को उसने गुलाम बना दिया। देसी भाषा को जाहिलों की भाषा बता दिया और भारतीयों को बाबू बनाने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान परोस दिया। हर पाठ में ये जरूर बताया कि हम कितने जाहिल और असभ्य है। वे तो चले गए लेकिन उनके पीछे उनका बहुत कुछ छूट गया। सबसे बड़ा तो उनके पीछे उनके नक्शे-कदम पर चलने वाला एक वर्ग ही पैदा हो गया। तालीम के साथ विदेशी संस्कारों को सर-माथे रखने वाले इस वर्ग ने अंग्रेजों की जगह ले ली। उसे अंग्रेजियत के फायदे समझ में आ रहे थे। मसूरी में आईएएस की ट्रेनिंग के दौरान तो ऐसा लगता था कि आईएएस कोई अलग किस्म की सुपर प्रजाति है। दिलो-दिमाग पर अंग्रेजियत पूरी तरह से हावी। जो अंग्रेजी परवरिश से आया उसको छोड़िए उससे भी ज्यादा अंग्रेजियत हिंदी के लोगों में देखने को मिली।

क्यों नहीं हिंदी प्रतिष्ठित हो पाई ?

हिंदी दो पाटों में पिस रही है। उसकी लड़ाई सिर्फ भाषा के स्तर पर ही नहीं है बल्कि उसे मानसिक लड़ाई भी लड़नी पड़ती है। मोदी जी के आने के बाद हिंदी में काम पर थोड़ा जोर दिया जा रहा है। अफसरों की तरफ से कड़ा प्रतिरोध है। गूगल ट्रांसलेटर से पढ़ कर नोट लिखे जाते हैं। हिंदी भाषी क्षेत्रों के अफसर भी हिंदी में खुद को तंग बताते हैं। वो भी बड़ा सीना चौड़ा करके। क्या करेंगे आप ? आप सुनते होंगे। मां-बाप आजकल ये बहुत बोलते हैं कि मेरा बच्चा वैसे तो पढ़ाई में बहुत तेज है बस थोड़ा हिंदी में कमजोर है। वे ये कभी नहीं बताते कि, उनके बच्चे का हाथ अंग्रेजी में थोड़ा तंग है। ये एक हीन और गुलाम मानसिकता नहीं तो और क्या है ?

हिंदी को मजबूत बनाना है को सबसे बड़ा काम तो अफसरी के तौरतरीकों को बदलना होगा। इसी वर्ग ने अंग्रेजियत को जिंदा रख कर उसका सबसे ज्यादा फायदा उठाया है। दूसरा बड़ा काम, हिंदी को रोजगार से जोड़ना होगा। य़े काम सिर्फ बोलने से नहीं होगा। किताबें, शोध  और सबसे ज्यादा वैज्ञानिकता के साथ हिंदी के सरोकारों को विकसित करना होगा। बहुत मुश्किल काम है। बाधाएं बहुत हैं लेकिन हो सकता है। तीसरी बात, हिंदी को दूसरी क्षेत्रीय भाषाओँ से लड़ना नहीं है बल्कि उनके साथ चलना होगा। क्षेत्रीय भाषाओं से बहुत कुछ सीखने को है। विशेषतौर पर तमिल, बांग्ला और मलयाली भाषा कई मायनों में तो हिंदी से भी ज्यादा परिष्कृत हैं। चौथी और अंतिम बात जो मैं कहना चाहूंगा वो है विज्ञान के साथ, देश-दुनिया की दूसरी भाषाओं के साथ हिंदी को जोड़ना होगा। हिंदी में कंप्यूटर का इस्तेमाल अंग्रेजी के मुकाबले कठिन है। ऐसा क्यों है जरा सोचिएगा। इस पर काम ही नहीं हुआ। विज्ञान के विषयों की किताबें तो हिंदी में मूल रूप से बहुत कम लिखी जा रही हैं। अब तो गांव में भी अंग्रेजी में ही किताबें चल रही हैं। बच्चों को विषय के ज्ञान के साथ अंग्रेजी सीखने में भी जोर लगाना पड़ रहा है।

हिंदी दिवस मनाने से कुछ नहीं होगा। कुछ बदलना है तो पहले भाषा को रोटी के साथ जोड़ो, सोच के साथ जोड़ो, सम्मान के साथ जोड़ो और सबसे बड़ी बात दुनिया के साथ जोड़ो। तब शायद हिंदी दिवस मनाने की जरूरत ही न पड़े।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

 

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