नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव पूरे हो चुके हैं। नतीजे कुछ प्रत्याशित तो कुछ अप्रत्याशित रहे। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के नतीजों ने सबसे ज्यादा चौंकाया। राजस्थान में जो कुछ हुआ जमीनी स्तर पर कुछ-कुछ उसकी उम्मीद थी। तेलंगाना में कांग्रेस की तगड़ी जीत की उम्मीद की जा रही थी और हुआ भी वही।
चुनाव में हार-जीत तो होती रहती है लेकिन जीत और हार दोनों में कुछ न कुछ सबक छिपा होता है और सत्ता की लड़ाई वही जीतता है जो उन संदेशों को पढ़ने में माहिर होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बीजेपी हाल-फिलहाल के वर्षों में इस खेल में पारंगत दिखती रही है लेकिन इन चुनावों ने कहीं न कहीं ये भी जाहिर किया है कि दूसरे दल भी अगर स्पष्ट दृष्टि और रणनीति के साथ मैदान में उतरें तो वे भी पीछे नहीं रहने वाले।
इस आलेख में चर्चा सिर्फ राजस्थान और मध्य प्रदेश की और वो भी इन राज्यों में कांग्रेस की कमान संभाल रहे अशोक गहलोत और कमलनाथ के नेतृत्व की। सवाल ये भी कि क्या अब कांग्रेस को समय रहते ऐसे नेताओं को हाशिए पर ढकेल देना चाहिए जो कांग्रेस के लिए एसेट कम बोझ ज्यादा साबित हो रहे हैं ?
राजस्थान- राजस्थान में हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज है। इस बार उम्मीद की जा रही थी कि अशोक गहलोत के जादूगरी नेतृत्व की बदौलत कांग्रेस राज्य में इस रिवाज को बदलने में सक्षम हो जाएगी। गहलोत सरकार की कई जनकल्याणकारी नीतियों के प्रति जनता के रुझान से भी कुछ-कुछ ऐसा ही लग रहा था। लेकिन नतीजों ने रिवाज पर ही मुहर लगाई।
कांग्रेस की हार के कई कारण रहे। अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच कलह सबसे बड़ा कारण रहा। सीट बंटवारे से लेकर एक दूसरे के खेमे के उम्मीदवारों को हराने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। अशोक गहलोत की कोशिश, खुद की जीत से ज्यादा जोर सचिन पायलट के खेमे के लोग जीत न पाएं इस पर था।
दूसरी तरफ सचिन पायलट, टोंक में खुद की सीट बमुश्किल बचा पाए। हाल ये हो गया कि गूजर बहुल इलाकों में जहां उनका रसूख हुआ करता था वहां भी कांग्रेस का हाल खराब रहा। गूजर पारंपरिक तौर या तो अपनी जाति को वोट देता है या फिर वो पारंपरिक तौर पर बीजेपी का साथ देता है। राजस्थान में कहीं न कहीं ये संदेश गूजर वोटरों में जा चुका है कि कांग्रेस को वोट दिया तो भी सचिन पाय़लट का मुख्यमंत्री बनना मु्श्किल है। नतीजा, सचिन पाय़लट के प्रभाव वाली सीटों पर कांग्रेस को हार मिली।
अशोक गहलोत, राजनीतिक गुणा-भाग में उस्ताद माने जाते हैं लेकिन इस बार वे चूक गए। राज्य में दूसरे छोटे दलों और समान विचार वाले दलों को साथ लेकर चल पाने में उनका कोई भी नुस्खा काम नहीं आया। बहुजन समाज पार्टी और बेनीवाल की पार्टी ने उनका खेल बिगाड़ने में जबरदस्त भूमिका निभाई।
इसमें कोई दोराय नहीं कि, कांग्रेस आलाकमान ने इन चुनावों में अशोक गहलोत को खुला हाथ दिया, उनके फैसलों को माना, टिकट बंटवारे में भी उनकी पसंद का खयाल रखा गया। लेकिन हुआ क्या वे पार्टी से ज्यादा खुद के प्रति निष्ठावान लोगों के गोटियां बैठाते रहे।
बीजेपी, हमेशा चुनावों में मुद्दों से ज्य़ादा भावनाओं का सहारा लेती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कन्हैया लाल की हत्या के मसले को चुनावी मुद्दा बना कर चुनावों को सांप्रदायिक आधार पर लामबंद करने की कोशिश की लेकिन अशोक गहलोत उसकी काट ढंग से नहीं कर पाए। जवाब में उन्होंने राजस्थानी अस्मिता के सवाल को हवा देने की कोशिश की लेकिन उसमें वे कामयाब नहीं हो पाए।
यह भी एक हकीकत है कि, राजस्थान में बीजेपी ने वसुंधरा राजे को अपना चेहरा न बना कर अशोक गहलोत के लिए एक मौका पैदा कर दिया था लेकिन वे इसे भुना पाने में नाकामय़ाब रहे। किरोड़ी लाल मीणा से लेकर, अर्जुन मेघवाल, दिया कुमारी, राजेंद्र राठौड़, गजेंद्र सिंह शेखावत और लोकसभा के स्पीकर ओम बिड़ला तक के नाम हवा में तैरते रहे लेकिन वसुंधरा को अपना चेहरा बनाने से बीजेपी परहेज करती रही। अशोक गहलोत ने बीजेपी के इस विभाजित चेहरे को अपनी राह के लिए आसान माना और शायद यहीं वे चूक कर गए।
मध्य प्रदेश- मध्य प्रदेश में पिछले 20 बरस से बीजेपी का शासन है। माना जा रहा था कि राज्य की जनता मामा शिवराज सिंह चौहान की सरकार से ऊब चुकी है और इस बार राज्य में बदलाव होगा ही होगा। लेकिन मामा बंपर मैजोरिटी के साथ सत्ता में लौटे और सारे कयासों पर विराम लगा दिय़ा।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व खुद शिवराज सिंह चौहान को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं था। बीजेपी ने कुछ केंद्रीय मंत्रियों समेत अपने कई सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भेज दिया। पार्टी संगठन के मजबूत नेता कैलाश विजयवर्गीय को भी विधानसभा के लिए चुनाव लड़ाया गया।
दूसरी तरफ कांग्रेस, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह समेत तमाम धुरंधर समझे वाले नेताओं के सहारे उम्मीदों का पुल बांधे थी, लेकिन हुआ क्या ? यहां सिर्फ कमलनाथ की ही चली। उन्होंने बीजेपी को कमजोर समझाते हुए खुद को उसका स्वाभाविक विकल्प समझ लिया। उनका एरोगेंस, पार्टी नेतृत्व को धता बताना, अखिलेश-वखिलेश जैसे उल्टे-पुल्टे बयान देना राज्य में कांग्रेस के लिए भारी पड़ गया। य़ही नहीं, बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री जैसे बाबाओं की शरण में जाकर उन्होंने पार्टी की स्थापित लाइन से खुद को अलग दिखाने की कोशिश की। राम मंदिर के निर्माण के लिए कांग्रेस को श्रेय़ देने वाला उनका बयान तो और भी विध्वंसक साबित हुआ। बहुत से मतदाताओं के मन में भ्रम की स्थिति पैदा हुई और नतीजा सामने है।
राजनीतिक विश्लेषक रमन कुमार मानते हैं कि, पिछली विधानसभा में कमलनाथ की डेढ़ साल की सरकार की भी चुनाव हराने में खास भूमिका रही। उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद पिछली सरकार की कई योजनाओं को बंद करने का एलान कर दिया था। इस बार शिवराज सरकार की लाड़ली बहना जैसी कई कल्याणकारी योजनाओ को लेकर जनता के मन में ये संदेह पैदा हो गया कि कांग्रेस के जीतने पर कहीं ये योजनाएं बंद न हो जाएं, लिहाजा जनता ने मामा के पक्ष में ही अपना वोट डालने का फैसला किया।
राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि, चुनावों से ये भी जाहिर होता है कि, इन राज्यों में कांग्रेस के वोट प्रतिशत में कोई खास गिरावट नहीं देखी गई लेकिन राज्य स्तर पर नेतृत्व की कमियों ने पार्टी को बहुत नुकसान पहंचाया। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने इंडिया गठबंधन के लिहाज से बुंदेलखंड में विधानसभा की छह सीटों की मांग कांग्रेस से की लेकिन कमलनाथ की हठधर्मिता के कारण ऐसा नहीं हो पाया और समाजवादी पार्टी ने राज्य की 68 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का काम किया।
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