देहरादून (गणतंत्र भारत के लिए शोध डेस्क ) : उत्तराखंड में 14 फरवरी को विधानसभा चुनाव हैं। राज्य का राजनीतिक माहौल गरम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस नेता राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने वहां चुनावी सभाएं की और अपनी-अपनी पार्टी की प्राथमिकताओं को गिनाया। सेना से लेकर रेल लाइन तक के मुद्दे चर्चा में उठाए गए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हल्द्वानी में सभा की और उन्होंने टनकपर- बागेश्वर और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन के अलावा राज्य में ऑलवेदर रोड पर हो रहे काम को बीजेपी की उपलब्धियों में गिनाया। राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने अपना फोकस सैनिकों और पूर्व सैनिकों पर रखा।
गणतंत्र भारत ने उत्तराखंड के चुनावी मसलों पर जमीनी हकीकत को परखने की कोशिश की और ये समझने का प्रयास किया कि वास्तव में राज्य में चुनाव में कौन से मसले प्रभावी हो सकते हैं।
राष्ट्रीय मुद्दे और उम्मीदवार की निजी छवि
वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान कहते हैं कि उत्तराखंड के मसले आमतौर पर वही रहते हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श में रहते है। कुछ मसले स्थानीय हो सकते हैं लेकिन सबसे ज्यादा यहां के चुनावों में कोई चीज मायने रखती है तो वो है उम्मीदवार का व्यक्तिगत रसूख। स्थानीय स्तर पर लोग उसके बारे में क्या राय रखते हैं ये मायने रखता है। वे बताते हैं कि, पहाड़ों में कुछ मसले हमेश ही चर्चा में रहते हैं जैसे कि पयायन, उद्योग, सड़क आदि।
भू कानून को लेकर असंतोष इन चुनावो में कितना प्रभावी रहेगा ? इस सवाल पर व्योमेश जुगरान कहते हैं कि, ये चर्चा सिर्फ बुद्धिजीवियों के बीच है। कितने आम लोग इन कानूनों के नतीजों को समझ पाते हैं। वे बताते हैं कि, देवस्थानम बोर्ड का एक बड़ा मसला था जिसे त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने बनाया था। उससे पुरोहितों और कर्मकांड से जुड़े वर्ग में बहुत नाराजगी थी। चारधाम के कारण पहाड़ों में काफी बड़ी संख्या इस वर्ग की है। पुष्कर धानी सरकार ने देवस्थानम बोर्ड को भंग करके कुछ हद कर उस मसले को खतम कर दिया है।
व्योमेश जुगरान का कहना है कि, उत्तराखंड ने 21 साल में 11 मुख्यमंत्री देख लिए। कोई भी मुख्यमंत्री पांच साल काम नहीं कर पाया। उत्तराखंड के चुनावों में चेहरा तो महत्वपूर्ण है लेकिन इसके पहले की किसी काम के लिए उस चेहरे की पहचान बन सके वो चेहरा ही बदल जाता है। उनका कहना है कि राज्य की राजनीति में लोग विकल्प के रूप में बीजेपी-कांग्रेस से अलग कुछ चाहते हैं। आम आदमी पार्टी को थोड़ा बहुत जो जनसमर्थन मिल रहा है वो उसी सोच के कारण है।
रेल –सड़क और पानी
पहाड़ों में रेल सेवा के विस्तार का मसला भी पिछले कई चुनावों से चर्चा में रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हल्द्वानी की सभा में टनकपुर- बागेश्वर रेल लाइन के अलावा ऑल वेदर सड़क को बीजेपी की उपलब्धि के रूप में गिनाया। वरिष्ठ पत्रकार भूपेश पंत के अनुसार, रेल और सड़क जैसे मसले पहाड़ के चुनावों में मायने तो रखते हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल रोजगार और विकास का ही है। उन्होंने बताया कि, ऋषिकेश – कर्णप्रयाग रेल लाइन पर काम जारी है लेकिन ये योजना तो बहुत पुरानी है।
हर घर जल का मसला। उत्तराखंड में हर घर पानी पहुंचाने की नीति के मसौदे को 2019 को मंजूरी दी गई थी। इस नीति के तहत प्रदेश में उपलब्ध सतही और भू जल के अलावा हर वर्ष बारिश के रूप में राज्य में गिरने वाले 79,957 मिलियन किलो लीटर पानी को संरक्षित किया जाना था। केंद्र सरकार ने भी पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को लिखे पत्र में आश्वस्त किया था कि उत्तराखंड को 2023 तक ‘हर घर जल राज्य’ बनाने में पूरा सहयोग दिया जाएगा। इंडिया वाटर पोर्टल के अनुसार उत्तराखंड सरकार ने बजट 2020-21 में प्रदेश की जनता को साफ पानी उपलब्ध कराने के लिए 1165 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है।
स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार
नैनीताल के खीम सिंह एक युवा हैं। वे कहते हैं कि राज्य मे सबसे बड़ा मसला रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का है। सरकारी स्कूलों की हालत खऱाब है। प्राइवेट स्कूलों का खर्च अधिकतर लोग उठा नहीं पाते। स्थानीय स्तर पर रोजगार है नहीं। कोई भी राजनीतिक दल राज्य के संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल और उन्हें और बेहतर बनाने की बात क्यों नहीं करता। दिल्ली में बैठकर राज्य के मसले तय़ करने वालों को क्या पता कि यहां के असल मुद्दे हैं क्या।
सामाजिक कार्यकर्ता रश्मि भट्ट बताती है कि, उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं का मसला बहुत बड़ा है। लोगों को अस्पताल पहुंचने के लिए मीलों सफर तय करना पड़ता है। गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों के लिए ये स्थिति कितनी पीड़ादयाक होती है, सोचा जा सकता है लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इसकी बात नहीं करता। रश्मि कहती है कि, जनता अब ऐसे सवालों को समझने लगी है। चुनावो में हम इसका असर देखेंगे।
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