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लिव इन रिलेशन : कानून का नहीं, पेंच सामाजिक अस्वीकार्यता का है….

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नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : श्रद्धा वाकर की हत्या ने लिव इन रिलेशनशिप को लेकर कई तरह के विमर्शो पर चर्चा को आरंभ कर दिया है। ऐसे संबंधों को लेकर सामजिक और नैतिक प्रश्न पहले से उठते रहे हैं लेकिन अदालती फैसलों ने इसे कई तरह से परिभाषित करने की कोशिश की।

ये सही है कि भारत में लिव इन संबंधों को अभी भी सामाजिक और नैतिक दायरे में मान्यता न के बराबर है। आमतौर पर इस तरह के संबंधों में रहने वाले लड़के और लड़कियां अपने परिवारों से बगावत करके या फिर कहीं छिप-छिपाकर साथ रहते हैं। यहां तक कि वे जहां रहते हैं वहां भी अपनी पहचान पति-पत्नी के रूप में ही बताते हैं। उन्हें खुद की पहचान को सार्वजनिक करने में आप ही शर्मिंदगी या यूं कहें कि झिझक महसूस होती है। फिर उन्हें ये भी डर होता है कि उनकी असली पहचान कहीं उनके लिए संकट न बन जाए।

नोएडा में रहने वाले सिद्धार्थ और रेवती पिछले दो वर्षों से लिव इन रिलेशन में हैं। सिद्धार्थ मध्य प्रदेश के हैं जबकि रेवती पंजाब की हैं। दोनों नौकरीपेशा हैं। उम्र भी 30-32 के आसपास है। अभी भी परिवार को उनके बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं पता। थोड़ा बहुत अंदाजा है। शादी को लेकर अभी भी वे मानसिक तौर पर तैयार नहीं हैं। ऐसा क्यों है ?  इस सवाल पर रेवती कहती हैं कि, शादी के बाद कई तरह की जिम्मेदारियां आती हैं उसके लिए समय चाहिए। बच्चे होंगे कौन पालेगा, नौकरी हम छोड़ना नहीं चाहते। परिवार वाले हमें पहले ही शक से देखते हैं। उन्हें पता चलेगा तो मुश्किल और बढे़गी।

मुश्किल सिद्धार्थ के साथ ज्यादा है। दो भाई हैं। बड़े की शादी हो चुकी है। पिता कारोबरी हैं। लड़के के लिए रिश्ते देखते-देखते मन अब मार चुके हैं। ये भी पूछ कर देख लिया कि कहीं पसंद हो तो बता दें वहीं कर देंगे। लेकिन वे इस तरह के रिश्ते के लिए तो कतई तैयार नहीं। भनक लगी तो लड़के से ही दूरी बना ली।

सिद्धार्थ और रेवती में मन-मुटाव, लड़ाई झगड़ा सब कुछ होता है लेकिन बात कभी हद से नहीं गुजरी। समय के साथ दोनों एक दूसरे की कमियों-खूबियों को भी समझने लगे हैं लेकिन अभी भी उनके मन में अपने रिश्ते को लेकर एक किस्म की टीस बनी हुई है।

कैसी टीस ? सिद्धार्थ और रेवती ने जो जवाब दिया दरअसल, वही भारत में इन रिश्तों की असल पहचान को बताता है। वे कहते हैं कि हम भले साथ रहते हों, लेकिन परिवार हो या समाज हमें कहीं भी वो जगह नहीं मिलती जो किसी पारिवारिक जोड़े को मिलती है। आमतौर पर हमें पारिवारिक समारोहों में एक साथ आने का न्यौता नहीं दिया जाता। ऐसा लगता है मानो हम कोई गुनाह कर रहे हों। हमें नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट और आवारा किस्म के लोगों में गिना जाता है। और तो और हमें दफ्तर में भी अपने कुछ खास दोस्तों को छोड़ कर अपनी पहचान छिपानी पड़ती है और खुद को शादीशुदा बताना पड़ता है। वे कहते हैं, क्या करें, यही हकीकत है।

शादी करने में क्या दिक्कत है ?  सिद्धार्थ कहते हैं कि मेरी तरफ से ज्यादा परेशानी नहीं है लेकिन रेवती की दो छोटी बहनें हैं और उनकी शादी खोजी जा रही है। वो चाहती है कि पहले उनकी शादी हो जाए फिर वो शादी कर लेगी। उसे डर है कि कहीं उसकी बहनों की शादी में उसकी वजह से कोई दिक्कत न खड़ी हो जाए। य़ानी उसे भी अपने संबंधों की सामाजिक मान्यता को लेकर डर से दोचार होना पड़ रहा है।

ये कहानी सिर्फ एक सिद्धार्थ या रेवती की नहीं है। दिल्ली-मुंबई, बेंगलुरू या कोलकाता सभी जगह लिव इन में रहने वाले ऐसे जोडो़ं की भरमार है और उनकी अपनी-अपनी कहानियां हैं।

लिव इन क्य़ों ?

समाजविज्ञानी राधारमण के अनुसार, समाज में कोई भी रवायत यूं ही नहीं पनपती। लिव इन जैसे संबंधों के पीछे भी बहुत से कारण हैं। पारंपरिक विवाहों की अपनी कमियां तो हैं हीं, पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन की स्थिति में न होना और साथ ही अब तो नौजवानों के दिमाग में ये भी घर करने लगा है कि ऐसे संबंधों से बिना शादी किए ही शादीशुदा जिंदगी जी जा सकती है तो फिर क्यों न उसे भी आजमा लिया जाए।

राधारमण बताते हैं कि, भारत में लिव इन रिलेशंस को लेकर कोई ठोस आंकड़े उपलब्ध नहीं है और हो भी नहीं सकते क्योंकि ऐसे संबंधों में रहने वाले अधिकतर जोड़े अपनी पहचान को उजागर नहीं करते। वे कहते हैं कि, लिव इन संबंधों को लेकर नजरिया साफ करने की  जरूरत है। कोई भी बालिग चाहे तो पूरी उम्र अपने लिव इन पार्टनर के साथ रहे लेकिन देखना ये पड़ेगा कि उससे परिवार नाम की संस्था को कोई नुकसान न पहुंचे। ऐसा कैसे संभव है? राधारमण के अनुसार, लिव इन पार्टनर्स की संतानों को जिस तरह से अदालतों से मान्यता मिल रही है उससे ऐसी चीजों को और बढ़ावा मिलेगा और एक संस्था के रूप में परिवार के सामने चुनौतियां खड़ी होंगी।

मनोविज्ञानी सुचेता कुमार इस मामले को थोड़ा अलग नजरिए से देखती हैं। उनका कहना है कि, लिव इन भारत के महानगरों या बड़े शहरों में ही आमतौर पर देखा जा रहा है। नौजवान पीढ़ी ने इसे अपनी मौजमस्ती का जरिया बना रखा है। वे शादी की जिम्मेदारियों से कतराते हैं लेकिन लिव इन में रहने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं। उन्होंने कहा कि, इस तरह के संबंधों में आमतौर पर ब्रेकअप जैसी स्थितिय़ां पैदा हो जाती हैं। आर्थिक रूप से लड़की की आत्म निर्भरता संबंधों में किसी समझौते की गुंजाइश को खत्म कर देती है। मैंने देखा है कि ऐसे हालात से निकली लड़कियां सफल पारिवारिक जीवन नहीं जी पाती। वे मानसिक तौर पर घोर असुरक्षा का शिकार हो जाती हैं। यही हाल लड़कों के साथ भी है। आमतौर वे अपनी पार्टनर को शक की निगाह से देखते हैं और संबंधों में भरोसे का अभाव होता है। अगर खुदा न खास्ता उनकी शादी किसी दूसरी लड़की से हो गई तो उनकी ये आदत वहां भी बरकरार रहती है और परिवार बिखरने की स्थिति आ खड़ी होती है।

क्या है कानूनी स्थिति ?

इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अजल कृष्ण के अनुसार, लिव इन रिलेशनशिप अवैध नहीं है, लेकिन क़ानून में कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गय़ा है। दो वयस्क जो अपनी मर्जी से एक साथ ज़िंदगी बिताना चाहते हैं, वही लिव-इन रिलेशनशिप है। वे बताते हैं कि, समाज में इसकी कोई नैतिक मान्यता नहीं है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। इसके तहत इसे क़ानूनी कहा जा सकता है, लेकिन हमारा समाज अभी भी इसे नैतिक रूप में स्वीकार नहीं करता है।

अजल कृष्ण बताते हैं कि, साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था कि, वयस्क होने के बाद इंसान किसी के भी साथ रहने या शादी करने के लिए स्वतंत्र है। कोर्ट ने कहा था कि कुछ लोगों की नज़र में ‘अनैतिक’ माने जाने के बावजूद ऐसे रिश्ते में होना ‘अपराध नहीं’ है।

वे बताते हैं कि,  2021 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले दो वयस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को सही ठहराते हुए कहा था कि ये संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की श्रेणी में आता है।

लेकिन पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इसी तरह के एक मामले में कहा था कि, याचिकाकर्ता अपनी अर्जी की आड़ में अपने लिव-इन रिलेशनशिप पर मंजूरी की मोहर लगाने की मांग कर रहे हैं जो नैतिक और सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं है और इसमें कोई सुरक्षात्मक आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।

लिव इन में रहने वालों के कानूनी अधिकार

अजल कृष्ण बताते हैं कि, महिला हो या पुरुष किसी के पास भी कोई क़ानूनी अधिकार नहीं हैं क्योंकि आप इसे एक तरह से स्वयं चुनते हैं। शादीशुदा महिलाओं को सुरक्षा और कई अधिकार मिलते हैं, वहीं लिव-इन रहने वाली महिलाओं के देखा जाता है कि उनका रिश्ता कितना पुराना और स्वीकार्य है।

लिव-इन से पैदा हुई संतान के अधिकार

अजल कृष्ण बताते हैं कि, जून 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू संपत्ति बंटवारे को लेकर अहम फ़ैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ लंबे समय तक बिना शादी के साथ रहने वाले दंपति से पैदा होने वाली संतान को पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलेगा। इस रिश्ते से पैदा हुए बच्चे के पूरे अधिकार हैं। उसे नाजायज़ कहकर उसके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।

अजल कृष्ण का सुझाव है कि, अगर लड़के-लड़कियां लिव इन में रहना चाहते हैं तो उन्हें प्री-मैरिटल कॉन्ट्रेक्ट करना चाहिए जिसमें सब कुछ लिखा और समझाया गया हो ताकि कोई किसी का अनुचित लाभ न उठा सके।

फोटो सौजन्य-सोशल मीडिया

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