नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए विजय शंकर सिंह):
पत्रकारों को कम वेतन नहीं देना चाहिए। कम वेतन पाने वाला पत्रकार अधिक खतरनाक हो सकता है। कभी ये रोचक निष्कर्ष निकाला था, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने। कार्ल मार्क्स पर उनकी ये एक रोचक टिप्पणी है। ये कथन जॉन एफ कैनेडी के ओवरसीज प्रेस क्लब न्यूयॉर्क में आयोजित एक पुरस्कार समारोह में, 6 मई 1957 को दिए गए भाषण का एक अंश है। ये भाषण जब वे सीनेटर थे तब उन्होंने दिया था। कार्ल मार्क्स, कभी न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में एक पत्रकार की हैसियत से काम करते थे। लेकिन उन्हें जो पारिश्रमिक मिलता था, वो उनके जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं होता था। मार्क्स, उस अखबार में फॉरेन करेसपोंडेंट थे। उन्होंने बाद में अखबार की नौकरी छोड़ दी और फिर जिस काम में वे जुटे उसने दुनिया बदल कर रख दिया। उनकी सोच और विचारधारा ने लेनिन, स्टालिन, माओ, कास्त्रो और चे जैसे लोगों को जन्म दिया, जिन्होंने दुनिया में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दर्शन और बाद में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो से उद्भूत विचारधारा के आधार पर दुनिया में बदलाव और क्रांति की पीठिका रखी।
पूरा किस्सा इस प्रकार है। 1851 में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के प्रकाशक और सम्पादक होर्स ग्रीली ने लंदन में काम कर रहे एक फ्रीलांस पत्रकार कार्ल मार्क्स को अपने अखबार में विदेश संवाददाता के रूप में नौकरी पर रखा। मार्क्स लंदन से ही, उस अखबार के लिए विदेशी मामलों पर अपने डिस्पैच भेजते थे। तब लंदन दुनिया के साम्राज्यवाद का नाभिस्थल था और मार्क्स की टिप्पणियों को बेहद रुचि और उद्विग्नता से पढ़ा भी जाता था। मार्क्स उस अखबार के लिए नियमित रूप से कॉलम लिखने लगे। जब कभी मार्क्स किसी अन्य अध्ययन में व्यस्त हो जाते तो, वो कॉलम उनके साथी फ्रेडरिक एंगेल्स लिख दिया करते थे। वैचारिक और दृष्टिकोणीय समानता के कारण, दोनों के लेखन और तार्किकता में कोई बहुत अंतर होता भी नहीं था। इस अखबार में नौकरी के दौरान कार्ल मार्क्स की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई और वे निरन्तर अर्थाभाव में रहने लगे। उन्होंने अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिए अखबार के मालिक ग्रीली और प्रबंध संपादक चार्ल्स डाना से अनुरोध किया और कम से कम 5 डॉलर की वृद्धि करने की मांग की। लेकिन अखबार ने भी ये कह कर कि उसकी भी आर्थिक स्थिति अमेरिकी गृह युद्ध के कारण अच्छी नहीं है कार्ल मार्क्स की तनख्वाह बढ़ाने से मना कर दिया। इस पर मार्क्स और एंगेल्स ने अखबार पर उन्हें ठगने और अपने शोषण करने की क्षुद्र पूंजीवादी सोच से ग्रस्त होने का आरोप लगाया और उन्होंने ट्रिब्यून की नौकरी छोड़ दी। उसके बाद वे अपने अध्ययन और दर्शन को समृद्ध करने में एंगेल्स के साथ पूरी तरह से जुट गए। फिर जो हुआ, वो बौद्धिक क्षेत्र में एक ऐसा बदलाव था, जिसने दुनिया को बदल दिया।
इसी प्रकरण पर हल्के फुल्के अंदाज़ में जॉन एफ कैनेडी टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि, यदि एक बार इस पूँजीवादी न्यूयॉर्क ट्रिब्यून अखबार उन ( कार्ल मार्क्स ) से अधिक दयालुता से पेश आया होता और कार्ल मार्क्स यदि उस अखबार में एक विदेश संवाददाता ही बने रहते तो, दुनिया का इतिहास ही कुछ अलग होता। मैं सभी प्रकाशकों से ये आशा करता हूँ कि वे इससे सबक सीखेंगे और भविष्य में ये ध्यान रखेंगे कि अगली बार अपनी गरीबी से पीड़ित यदि कोई व्यक्ति अपने वेतन में थोड़ी भी वृद्धि की मांग करता है तो उस पर विचार करेंगे।
कैनेडी ने भले ही ये बात हल्के फुल्के अंदाज़ में कही हो, पर इसे एक बेहद तार्किक और गम्भीर कथन के रूप में भी देखा जा सकता है। अभाव में जीता हुआ व्यक्ति यदि उक्त अभाव के कारणों की तह में जाता है और जब वो अपने उचित अधिकारों और अभाव के समाधान के लिए समाज में खड़े होकर मुखर होने लगता है तो ना केवल उसकी परिस्थितियां बदलती हैं बल्कि वो समाज को एक दिशा भी देने की हैसियत में आ जाता है।
कैनेडी एक पूंजीवादी व्यवस्था वाले देश के सेनेटर थे और बाद में वे उस देश के राष्ट्रपति भी बने। उन्हें अमेरिका के बेहतर राष्ट्रपति के रूप में गिना जाता है। ये भी एक विडंबना है कि उनकी हत्या हुई। वे जिस दौर मे थे वो शीत युद्ध का काल था। अमेरिका और सोवियत संघ की आपसी प्रतिद्वंद्विता में दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी। कैनेडी अपने भाषण में यही रेखांकित करते हैं कि बढ़ता हुआ आर्थिक और सामाजिक शोषण, अभाव और विपन्नता में धकेलती हुई राज्य व्यवस्था क्रांति और बदलाव की भूमिका लिखने लगती है। बस उसे नेतृत्व, दिशा, वैचारिक सोच, परिस्थितियों और अवसर की प्रतीक्षा रहती है।
ये आलेख जन चौक डॉट कॉम से साभार लिय़ा गया है। गणतंत्र भारत ने इसे अपनी जरूरत के हिसाब से संपादित किया है लेकिन लेख की मूल भावना यथावत है। इसके लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी विजय शंकर सिंह।
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