लखनऊ, 11 अक्टूबर (गणतंत्र भारत के लिए हरीश मिश्र) : धऱतीपुत्र मुलायम सिंह यादव के निधन के साथ समाजवादी नेताओं की उस पंक्ति का अंत हो गया जिसने ताउम्र अपनी सोच और सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। उनके राजनीतिक सफर में कई पड़ाव ऐसे देखे गए जब लगा कि शायद मुलायम सिंह यादव राजनीति में व्यावहारिकता के चलते समझौतापरस्त हो गए हैं। लेकिन समय के साथ मुलायम ने जाहिर कर दिया कि वे उस मिट्टी के बने थे जो अपने मूलभूत सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते। एक तरह से लोहिया के बाद, सबसे बड़े समाजवादी नेता थे मुलायम सिंह यादव।
मैंने मुलायम सिंह को बहुत करीब से जाना। पत्रकारिता के करीब 40 वर्षों के मेरे करियर में मुलायम सिंह वो राजनेता रहे जिनसे निकटता के बीच कभी भी उनका सत्ता में रहना या न रहना मायने नहीं रखता था। तमाम गूढ़ मसलों पर विचार-विमर्श हो या उनके तमाम राजनीतिक फैसले, वे अपने करीबी राजनीतिक मित्रों, निकट के पत्रकारों और शुभचिंतकों से चर्चा करने में कभी हिचकिचाते नहीं थे। दोस्तों के दोस्त मुलायम सिंह मदद करने में अपनी सीमाओं से भी आगे चले जाते थे। राजनीतिक विरोधियों ने मुलायम सिंह को यादवों और मुसलमानों का नेता बताया। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहे पर हुए वाकये ने मुलायम सिंह को उत्तराखंड के विरोधियों की गिनती में ला खड़ा किया। लेकिन, कम लोग जानते हैं कि वो कांड राजनीति से कहीं ज्यादा एक प्रशासनिक चूक था।
मुलायम सिंह की राजनीति और शख्सियत को परिभाषित कर पाना और उसे चंद शब्दों में समेट पाना नामुमकिन सा है। कभी मुलायम सिंह संघर्ष से तप कर निकले जननेता दिखते थे तो कभी कठोर प्रशासनिक फैसले लेने वाले राजनेता के रूप में नजर आते हैं। कभी मुलायम सिंह यादव मुल्ला-मुलायम नजर आते थे तो कभी समाज के हर वर्ग के कल्याण की सोच रखने वाले नेता के रूप में दिखते थे।
उनके राजनीतिक जीवन में कई विरोधाभास भी देखने को मिले। सामूहिक नेतृत्व में अटूट आस्था रखने वाले मुलायम सिंह यादव कभी परिवारवाद को भी बढ़ावा देते दिखे। एक वक्त था जब समाजवादी पार्टी के स्तंभों में मुलायम सिंह के अलावा, बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह और मोहन सिंह जैसे दिग्गज और धुंरधर नेता हुआ करते थे। सारे फैसलों में इनकी स्वतंत्र सोच बहुत अहम होती थी। लेकिन वक्त के साथ पार्टी पर परिवार हावी होता चला गया और मुलायम सिंह की विरासत के लिए परिवार में किस तरह का कलह हुआ ये भी एक बेबस मुलायम सिंह के राजनीतिक पड़ाव हिस्सा था।
समाजवादी मुलायम सिंह की सुब्रत राय़, अमर सिंह और अनिल अंबानी जैसे लोगों से निकटता पर भी सवाल उठे। लेकिन मुलायम सिंह ने कभी उसकी परवाह की हो ऐसा लगता नहीं। अमर सिंह ने तो पार्टी छोडने के बाद मुलायम सिंह पर व्यक्तिगत और राजनीतिक कई तरह से आरोप भी मढ़ दिए लेकिन मुलायम सिंह ने कभी भी अमर सिंह के बारे में कुछ कहा हो ऐसा नहीं रहा। अपने विरोधियों की गरिमा का खयाल रखना भी उनके व्यक्तित्व का एक खास पहलू था।
किसानों और वंचितों को ताकतवर बनाने के लिए संघर्ष की राजनीति
मुलायम सिंह जब राजनीति में आए तो उस वक्त इस क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन से निकले लोगों का बोलबाला था। डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई को संसद से सड़क तक पहुंचा दिया था। डॉक्टर लोहिया के बाद उनकी राजनीतिक विरासत पर बहुत हद तक चौधरी चरण सिंह काबिज हो चुके थे। मुलायम सिंह ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बैनर तले डॉक्टर लोहिय़ा के ‘एक वोट एक नोट’ के सिद्दांत पर अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूती देने का काम जारी रखा। वे उत्तर प्रदेश में पिछड़ी राजनीति का उभरता चेहरा थे। इमरजेंसी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग से आने वाले नेता रामनरेश यादव ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। बाद में जनता दल बना और मुलायम सिंह यादव ने 1989 में पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली।
मुलायम सिंह ने अपनी राजनीति में कई तरह के प्रयोग किए। कभी मायावती का साथ लिया तो कभी कांग्रेस को किनारे लगाने के लिए बीजेपी से भी हाथ मिलाया। वे तीन बार मुख्यमंत्री रहे। केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री रहे लेकिन मुलायम सिंह की छवि उसी संघर्ष में तपे नेता की रही जो पिछड़ों और कमजोर के लिए लड़ाई लड़ने में कभी पीछे नहीं हटता था।
सत्ता के गलियारे में दलितों और पिछड़ों का प्रवेश
मुलायम सिंह यादव वे शख्स रहे जिन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों और पछ़ड़ों के अलावा कमजोर वर्ग को सत्ता के गलियारों में जगह दिलाई और वे एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन कर सामने आए। ये वर्ग आमतौर पर कांग्रेस का पारंपरिक वोटबैंक हुआ करता था लेकिन मुलायम सिंह ने उसे उसकी ताकत का बखूबी एहसास कराया और उत्तर प्रदेश की राजनीति को सवर्ण आधिपत्य से मुक्त कराया। इसे लेकर मुलायम सिंह पर आरोप भी खूब लगे। दलित और पिछड़ों के साथ मुलायम सिंह, मुसलमानों को भी अपनी तरफ खींचने में सफल रहे। सत्ता के गणित में एम-वाई फैक्टर ने उत्तर प्रदेश में जहां मुलायम सिंह को मजबूती दी वहीं कांग्रेस की कमजोरी की वजह बना। मुसलमान तो मुलायम सिंह को मुस्लिम हितों की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा नेता मानने लगे।
कांग्रेस मुक्त उत्तर प्रदेश
सत्ता की लड़ाई में बीजेपी से कहीं पहले मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश को कांग्रेस मुक्त करने की दिशा में पहल कर दी थी। राजीव गांधी से अलग होकर वीपी सिंह ने जनता दल बनाया और मुलायम सिंह यादव, उत्तर प्रदेश में उसका चेहरा बने। दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के हितों के अलावा गैर परिवारवादी राजनीति की वकालत करते हुए मुलायम सिंह यादव ने यूपी में कांग्रेस को जो सत्ता से बेदखल किया तो आज कर कांग्रेस राज्य में अपनी राजनीतिक जमीन की तलाश में ही जुटी हुई है।
राजनीतिक दांव के माहिर पहलवान
मुलायम सिंह यादव, शुरुवात में एक शिक्षक नेता थे जो कुश्ती और पहलवानी का भी शौक रखते थे। वे एक ऐसे समाजवादी नेता थे जो सैद्धांतिक राजनीति के साथ राजनीतिक व्यवहार में भी पारंगत थे। यही वो कारण रहा उन्हें उनकी धुर विरोधी पार्टी बीजेपी से भी सरकार चलाने में समर्थन मिला। संसद में मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान जब परमाणु समझौते को लेकर वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस लिया तब मुलायम सिंह ने समर्थन देकर सरकार को बचाया। मुलायम सिंह के इस कदम से उनके समर्थन में खड़े रहने वाले वामदल उनके विरोधी हो गए।
सरकार और प्रशासन पर गहरी पकड़
मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे। प्रशासन और सरकार पर उनकी तगड़ी पकड़ ने उनके विरोधियों को भी उनका कायल कर दिया था। ऐसा नहीं था कि पार्टी में कोई उनका आलोचक नहीं था लेकिन मुलायम सिंह सबकी सुनते थे। एक बार तो पार्टी की एक सभा में मंच पर ही पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहन सिंह ने मुलायम सिंह को सरकार के कुछ फैसलों के लेकर खूब खऱी-खोटी सुनाई और मुलायम सिंह सब कुछ चुपचाप सुनते रहे। उनके साथ काम करने वाले अफसर भली-भांति जानते थे कि मुलायम सिंह को प्रशासनिक रूप से गुमराह नहीं किया जा सकता, लिहाजा वे भी सतर्कता के साथ काम करते थे। जरूरत पड़ने पर मुलायम सिंह ने कठोर फैसले लिए और उन पर अमल करवाया। अयोध्या में कारसेवकों पर गोलीबारी इसी तरह की घटना थी। इसे लेकर मुलायम सिंह की तीखी आलोचना हुई लेकिन मुलायम सिंह ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में उस फैसले पर कभी कोई अफसोस नहीं जताय़ा। वे मानते थे कि सरकार का काम कानून-व्यवस्था को बनाए रखने का है चाहे उसके लिए कितने भी कड़े फैसले क्यों न लेने पड़ें।
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