नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए लेखराज) : देश में एक बार फिर एक देश-एक चुनाव का मसला चर्चा में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई मौकों पर इस विषय के समर्थन में अपेन विचार सामने रखे हैं। लेकिन, पिछले दिनों पीठासीन अधिकारियों के अखिल भारतीय सम्मेलन के समापन सत्र में इस विषय पर चर्चा करके इस पर बहस को नए सिरे से जन्म दिया है। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा कि, एक देश-एक चुनाव सिर्फ़ चर्चा का विषय नहीं बल्कि भारत की ज़रूरत है। हर कुछ महीने में भारत में कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं। इससे विकास कार्यों पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस विचार पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक काम पर भी असर पड़ता है। अगर देश में सभी चुनाव एक साथ होते हैं तो पार्टियां भी देश और राज्य के विकास कार्यों पर ज़्यादा समय दे पाएंगी।
प्रधानमंत्री की इस सोच को देखते हुए निर्वाचन आयोग ने भी अपनी तरफ से साफ किया है कि वो एक देश-एक चुनाव के विचार को अमली जामा पहनाने के लिए तैयार है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने पिछले दिनों एक पत्र समूह से बातचीत में कहा कि अगर सरकार चाहेगी तो चुनाव आयोग पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार है। उन्होंने ये भी कहा कि सरकार को इसके लिए जरूरी संवैधानिक संशोदन भी करने पड़ेंगे।
आज़ादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे। तब लोकसभा और सभी राज्यों की विधान सभाओँ के लिए एक साथ चुनाव कराए गए थे। इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव एक साथ कराए गए, लेकिन फिर ये सिलसिला टूट गया।
इससे पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इससे पैसे और समय की बचत होगी। प्रधानमंत्री ने इस विषय पर विचार के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी।
साल 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में कहा था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की जरूरत है। साल 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने देश में एक साथ चुनाव कराने की सिफ़ारिश की थी।
राजनीतिक दलों में मतैक्य नहीं
भारत में एक देश-एक चुनाव के प्रश्न पर राजनीतिक दलों की राय अलग-अलग है। विधि आयोग ने जब इस मसले पर राजनीतिक दलों से राय मांगी तो समाजवादी पार्टी के अलावा तेलंगाना राष्ट्र समिति और अकाली दल ने इस विचार के पक्ष में अपना रुख जाहिर किया था लेकिन डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई, एआईयूडीएफ और गोवा फॉर्वर्ड पार्टी ने इसका विरोध किया था।
कांग्रेस ने इस मसले पर अपना रुख साफ नहीं किया था और दूसरे राजनीतिक दलों से विचार करने के बाद अपनी राय को जाहिर करने की बात कही थी। वाम दलों का कहना था कि, ये विचार अलोकतांत्रिक और संघवाद के सिद्धांत की सोच के ख़िलाफ़ है।
शंकाएं क्या हैं ?
इस विचार का विरोध करने वालों ने शंका जताई थी कि अगर ये दोनों चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी के लिए वोट कर देगा।
लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है ? उड़ीसा में 2004 के बाद से चारों विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव के साथ हुए और उसमें नतीजे भी अलग-अलग रहे। आंध्र प्रदेश में भी ऐसा ही हुआ जहां लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव साथ कराए गए लेकिन नतीजे अलग-अलग रहे।
चुनौतियां भी कम नहीं
विशेषज्ञ इस विचार की व्यावहारिकता पर दो तरह के सवाल उठा रहे हैं। पहला, वे मानते हैं ऐसा करना संघवाद और संसदीय लोकतंत्र की परंपराओं के खिलाफ है। वे मानते हैं कि, एक देश- एक चुनाव कराने का मतलब ये है कि पांच साल के बाद ही चुनाव होंगे। उसके पहले नहीं हो पाएंगे। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अगर किसी विधानसभा में किसी पार्टी का बहुमत किसी वजह से ख़त्म हो गया तो आज तो चुनाव कराए जा सकते हैं लेकिन तब पांच साल के पहले ये संभव नहीं होगा। ऐसी स्थिति में क्या होगा ये सोचने का विषय है।
दूसरा सवाल, पैसे और समय की वचत का है। विशेषज्ञों का कहना है कि, ऐसा लगता तो नहीं कि इससे पैसा बचेगा लेकिन अगर पैसा बचता भी है तो क्या पैसा बचाने के लिए देश में लोकतांत्रिक परंपराओँ को ही खत्म कर दिया जाएगा।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया