नई दिल्ली 4 नवंबर (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : दिल्ली का दम आज घुट रहा है। गणतंत्र भारत ने हालात बिगड़ने से पहले भी लगातार इस विषय पर लिखा। दबाव बनाने की कोशिश की। सत्ता-प्रशासन को चेताने की कोशिश की लेकिन ढाक के वही तीन पात। कानों पर जूं नहीं रेंगीं। आज हम आंकड़ों की बात नहीं करेंगे। सिर्फ मौजूदा हालात की बात होगी और नीयत की बात होगी। सवाल प्रदूषण के यक्ष प्रशन का है जिसके आइने में सरकारों की नीयत को परखे जाने की कोशिश होगी।
दिवाली आते-आते दिल्ली-एनसीआर में जनता का दम घुटने लग जाता है। ये हर साल की कहानी है, किसी एक साल या मौके की बात नहीं है। दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार, पड़ोसी राज्यों की सरकारें और यहां तक कि इस क्षेत्र की जनता, सभी एक-दूसरे को कोसना या दोष देना शुरू कर देते हैं। वैसे इसमें दोष है भी सभी का। कोई कम तो कोई ज्यादा। ये बात सरकार भी जानती है और लोग भी।
दिल्ली की हवा में पीएम2 का स्तर 500 की करीब पहुंच रहा है। नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद और गुरुग्राम के इलाकों के आंकड़े भी कमोवेश इसी के जैसे हैं। यानी हालात यहां भी बेहद खराब हैं। प्रदूषण नियंत्रण के उपायों के तहत ग्रेप का चौथा स्तर लागू किया जा रहा है। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आठवीं तक के स्कूलों को या तो बंद कर दिया गया है या फिर ऑनलाइन क्लासेज़ कराने का निर्देश दिया गया है। सरकार ने एडजवाइजरी जारी है कि अधिक से अधिक वर्क फ्रॉम होम के फार्मूले को अपनाया जाए। चर्चा दिल्ली की सड़कों पर ऑड-इवेन लागू करने की भी है।
दिल्ली में प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह यहां की सड़कों पर वाहनों की भरमार है। 50 प्रतिशत से ज्यादा प्रदूषण की वजह सिर्फ और सिर्फ दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले बड़े वाहन और मालों की आवाजाही के लिए इस्तेमाल हो रहे डीजल के ट्रक के धुएं हैं। दूसरा नंबर, उद्योंगो का है, जिससे प्रदूषण 30 फीसदी के करीब है। फिर नंबर, निर्णाण गतिविधियों और अन्य कारणों का आता है। सीजनल रूप से दिल्ली की आबोहवा को खराब करने में कुछ भूमिका दिल्ली के पड़ोसी राज्यों, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में खेतों में जलाई जाने वाली पराली की भी है। पराली पर हायतोबा इसलिए ज्यादा मचती है क्योंकि इस समय दिल्ली की आबोहवा मौसमी दबाव के कारण पहले से ही काफी खराब रहती है ऊपर से पराली के धुएं की मार, यानी कोढ़ में खाज के हालात।
चरमराता बुनियादी ढांचा
दिल्ली में हालात को देखिए। आबादी 2 करोड़ के आसपास, फ्लोटिंग पॉपुलेशन करीब 75 लाख। एनसीआर को देखें तो पांच करोड़ से ज्यादा की आबादी का भार और रोजाना हजारों की तादाद में इस इलाके में रिहाइश का सपना देखने वाले लोगों का आना। स्कूल, आवास, परिवहन, सभी पर दबाव, और दबाव। उद्योगों का दबाव अलग से। हालात इतने खराब कि, कुछ महीने इलाके में सांस लेना भी दूभर हो जाता है। दिल्ली इस समय कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रही है।
दिल्ली में प्रदूषण का मुद्दा पिछले दो दशकों में ज्यादा चर्चा में आया। इसी दौरान इस क्षेत्र की आबादी और बुनियादी ढांचे में तेजी से विकास हुआ। प्रदूषण पर निगरानी के लिए हरित प्राधिकरण जैसी संस्थाओं को गठित किया गया। हालात बिगड़ने पर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट भी पेंच टाइट करता रहता है, लेकिन ठोस और दूरगामी नीति के तहत कुछ नहीं होता। महीने- दो महीने हो हल्ला होता है। स्मॉग टावर से लेकर सड़कों की धुलाई, कंस्ट्रक्शन गतिविधियों पर रोक, सड़कों पर थोड़ी सख्ती, फिर अगले साल तक के लिए उसे ढंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। ये रवायत सी बन गई है।
सवाल सरकारों की नीयत पर
दिल्ली में पिछले आठ सालों से आम आदमी पार्टी और आसपास के राज्यों में पिछले पांच सालों से ज्यादा समय से बीजेपी की सरकारें रही हैं। इन सभी ने प्रदूषण को लेकर बड़े-बड़े हवाई वादे और घोषणाएं कीं। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार ने सड़कों पर ऑड-इवेन को भी आजमाया। कई तरह के प्रतिबंध लगाए लेकिन कुछ ठोस हो पाया हो ऐसा नहीं है। नीतियां बनी भी तो बस फौरी तौर पर तात्कालिक उपायों के तौर पर। न तो नीतियों में ठहराव था न सराकारों के पास कोई दृष्टि थी। हां पैसे खूब खाए गए। पर्यावरण को लेकर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने कोई नीति बनाई तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी। कुल मिलाकर पर्यावरण और प्रदूषण का मुद्दा सरकारों, अदालतों और प्राधिकरणों के बीच फुटबॉल बन कर रह गया। कभी गेंद किसी के पाले में तो कभी टोपी किसी दूसरे के सिर पर। नीयत किसी की भी दूरगामी और स्थायी समाधान की नहीं रही।
उदाहरण से समझिए, कुछ साल पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को देखते हुए डीजल से चलने वाली बड़ी गाड़ियों (20 लाख से ज्यादा कीमत वाली ) पर रोक लगाने का आदेश दिया। बस फिर क्या था, हंगामा मच गया। ऑटो मोबाइल लॉबी सक्रिय हुई, सुप्रीम कोर्ट से आदेश पर अंतरिम रोक का आदेश लेकर आ गई। उस अंतरिम रोक का फिर क्या हुआ आज तक किसी को पता नहीं चला। एनजीटी ने अपना काम किया, सुप्रीम कोर्ट ने अपना, सरकारों ने अपना। सबने अपना-अपना काम किया लेकिन हालात जस के तस। जमीन पर कोई फर्क नहीं। सब मिलाकर कहें तो प्रदूषण के नाम पर खाते रहो, खिलाते रहो। बस और कुछ नहीं।
बाजार का दबाव ?
करीब दो दशक पहले तक दिल्ली और आसपास के इलाकों में बिजली एक बड़ी समस्या थी। इनवर्टर और जनरेटरों का बाजार गुलजार था। खूब बिक्री हुई। घर-घर इनवर्टर और जेन सेट पहुंच गए। बिजली की हालत बेहतर हुई तो इस बाजार की रौनक खत्म हो गई। बड़ी गाडियों और एयर प्योरीफायर का बाजार सज गया। सरकारी नीतियां और उद्योगपतियों की लॉबी सक्रिय है और सफल भी। कॉरपोरेट जगत से जुड़े एक विश्लेषक के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण की समस्या सिर्फ दो वजहो से है। वाहन और निर्माण। सरकार इन पर नियंत्रण लगा कर प्रदूषण को काबू कर सकती है। कड़े फैसले लेने होंगे। समूचे क्षेत्र के लिए एक समग्र नीति बनानी होगी। सिंगापुर का मॉडल है, वहां कार खरीद पर 300 प्रतिशत टैक्स है यानी 10 लाख की गाड़ी 40 लाख की पड़ेगी। अच्छे-अच्छे बचते हैं। लेकिन, साथ ही वहां का पब्लिक ट्रांसपोर्ट इतना शानदार है कि कार की जरूरत ही महसूस नहीं होती। भारत में क्या ये संभव है ? यहां जरूरत ऑटोमोबाइल या बिल्डर लॉबी पर नकेल लगाने की है लेकिन सवाल ये कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन ?
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