नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : चुनाव आयोग की साख दांव पर है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर सरकार से सवाल पूछे हैं उससे जाहिर है कि शीर्ष अदालत, चुनाव आयोग को लेकर इत्मीनान में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को लेकर सरकार के सामने कई तरह के गंभीर सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा है कि, देश को ऐसा चुनाव आयोग चाहिए जो प्रधानमंत्री को भी न बख्शे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, हर सरकार अपनी हां में हां मिलाने वाले व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त नियुक्त करती है।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग पर सवाल उठाते हुए एक उदाहरण के साथ सरकार से पूछा कि कभी किसी पीएम पर आरोप लगे तो क्या आयोग ने उनके ख़िलाफ़ ऐक्शन लिया है?
न्यायमूर्ति के. एम जोसेफ़ ने कहा कि, हमें एक सीईसी की आवश्यकता है जो पीएम के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई कर सके। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि प्रधान मंत्री के ख़िलाफ़ कुछ आरोप हैं और सीईसी को कार्रवाई करनी है। लेकिन सीईसी कमज़ोर घुटने वाला है। वो ऐक्शन नहीं लेता है। क्या ये सिस्टम का पूर्ण रूप से ब्रेकडाउन नहीं है?
पीठ ने कहा कि, सीईसी को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त और स्वतंत्र होना चाहिए। ये ऐसे पहलू हैं जिन पर सरकार को ध्यान रखना चाहिए। हमें चयन के लिए एक स्वतंत्र निकाय की आवश्यकता है। संविधावन पीठ ने सरकार से कहा कि, आप हमें निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया समझाएं। हाल ही में आपने एक आयुक्त की नियुक्ति की है। किस प्रक्रिया के तहत आपने उनको नियुक्त किया है? अदालत का इशारा नव नियुक्त चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की तरफ था।
सुप्रीम कोर्ट 17 नवंबर से मामले की सुनवाई कर रहा है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के तेवर बहुत सख़्त थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, देश को इस समय टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की ज़रूरत है। शीर्ष आदालत ने टिप्पणी की कि, ज़मीनी स्थिति ख़तरनाक है। अब तक कई सीईसी रहे हैं। मगर टीएन शेषन जैसा कोई कभी-कभार ही होता है। हम नहीं चाहते कि कोई उन्हें ध्वस्त करे। तीन लोगों (सीईसी और दो चुनाव आयुक्तों) के नाज़ुक कंधों पर बड़ी शक्ति निहित है। हमें सीईसी के पद के लिए सबसे अच्छा व्यक्ति खोजना होगा।
सभी सरकारें एक जैसी
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार और उससे पहले की कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को आड़े हाथों लिया। अदालत से सरकार से पूछा कि आख़िर क्या कारण हैं कि 2007 के बाद से सभी मुख्य चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल छोटा रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि, 1991 के अधिनियम के तहत पद धारण करने वाले मुख्य निर्वाचन अधिकारी का कार्यकाल छह साल का है। फिर उनका कार्यकाल कम क्यों रहता है? संविधान पीठ ने कहा कि उसका प्रयास एक प्रणाली बनाने का है ताकि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने।
अदालत ने सुनवाई के दौरान ये विचार भी सामने रखा कि क्यों न मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी शामिल किया जाए।
2018 के बाद से चुनाव आयोग में नियुक्तियों के मामले में पारदर्शिता बरतने और आयुक्तो की नियुक्ति के लिए कॉलीजियम सिस्टम बनाने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल की गईं। अब उन सभी याचिकाओं को क्लब करके संविधान पीठ मामले की सुनवाई कर रही है। मामले के लिए गठित संविधान पीठ में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय और न्य़ायमूर्ति सीटी रविकुमार शामिल हैं। न्यायमूर्ति केएम जोसेफ़ इस पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के सुझाव भी सवालों के कटघरे में
प्रख्यात शिक्षाविद प्रताप भानु मेहता ने आज चुनाव आयोग को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट की खींचतान पर अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में लेख ‘ FIXING ELECTION COMMISSSION’ लिखा है। इस लेख में उन्होंने कॉलेजियम और मुख्य न्यायाधीश वाले सुप्रीम कोर्ट के सुझाव पर सवाल उठाया है। उन्होंने लिखा है कि, इससे कार्यपालिका के काम में न्यायिक दखलंदाजी बढ़ेगी। इसकी जरूरत नहीं है। उन्होंने लिखा है कि, इस समय सुप्रीम कोर्ट के सामने इलेक्शन बॉंड जैसे अहम मसले मौजूद हैं उन पर सुनवाई की ज्यादा जरूरत है। उन्होंने अपने लेख में चुनाव आयोग पर ई श्रीधरन और मिलन वैष्णव की किताब ‘PUBLIC INSTITUTIONS IN INDIA’ का भी उल्लेख किया है। इस किताब में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तो के कार्यकाल और नियुक्तियों को विवेकसम्मत बनाने के लिए प्रणाली बनाने का सुझाव दिया गया है।
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