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लड़ाई लड़ने के साथ, लड़ाई में दिखना भी जरूरी, यूपी के वोटर का यही संदेश

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लखनऊ ( गणतंत्र भारत के लिए हरीश मिश्र ) : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जो नतीजे आए हैं वे राज्य में दो पार्टियों के लिए बेहद चौंकाने वाले और शर्मिंदगी से भरे हुए हैं। चुनावी आंकडों के विश्लेषण से साफ है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी प्रदर्शन का प्रदर्शन अनुमानों से भी खराब रह। नतीजे संकेत दे रहे हैं कि राज्य में दोनों पार्टिय़ों के लिए चुनौती अब अपने अस्तित्व को बचाए रखने भर की रह गई है।

बहुजन समाज पार्टी

बहुजन समाज पार्टी को इन विधानसभा चुनावों में केवल 12.84 प्रतिशत वोट हासिल हुए और उसे 403 सदस्यों वाली विधानसभा में केवल एक सीट मिली जो बलिया की रसड़ा सीट थी। इस सीट से पार्टी उम्मीदवार उमाशंकर सिंह विजयी हुए। जो आंकड़े हासिल हुए हैं उसके हिसाब से बहुजन समाज पार्टी को इन चुनावों में लगभग उतने ही वोट हासिल हुए हैं जितना जाटव वोटों का कुल प्रतिशत है। मायावती इसी जाटव समाज से आती हैं। जाटवो का वोट प्रतिशत करीब 13 जो राज्य में कुल दलित वोटों में 21 प्रतिशत है।  

ऐसा देखा गया था कि बहुजन समाज पार्टी का एक निश्चित वोटबैंक है जो हमेशा उसके पक्ष में वोट करता है और ये मत प्रतिशत हमेशा से 20 प्रतिशत से ऊपर ही रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब पार्टी ने एक भी सीट नहीं जीती थी तब भी उसे 19.77 मत प्रतिशत हासिल हुआ था।

1993 के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को सबसे कम 11.12 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे लेकिन उन चुनावो में पार्टी सिर्फ 164 सीटों पर लड़ी थी और 67 सीटों पर उसे विजय हासिल हुई थी। 2007 में जब बहुजन समाज पार्टी ने अपने दम पर सरकार बनाई तब उसे 30.43 प्रतिशत मत हासिल हुए थे और उसने कुल 206 सीटैं जीती थीं। 2012 में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादन ते नेतृत्व में सरकार बनाई लेकिन बहुजन समाज पार्टी को इन चुनावों में भी 26 प्रतिशत वोट मिले। 2017 में पार्टी ने 19 सीटें जीतीं लेकिन उसे 22.33 प्रतिशत वोट हासिल हुए।

बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री रहीं हैं और उन्हें कांशीराम की सोशल इंजीनियरिंग और दलित चेतना के प्रतीक के तौर पर देखा गया। पार्टी ने राज्य से बाहर भी कई राजनीतिक प्रयोग किए। इन चुनावों में भी बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश से बाहर पंजाब में अकाली दल के साथ चुनावी गठबंधन किया था।    

कांग्रेस

2022 के विधानसभा चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनावों के सेमीफाइनल के रूप में भी देखा जा रहा था। कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के नेतृत्व में राज्य में ताल ठोकीं और काफी समय के बाद सभी 403 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे। प्रियंका गांधी ने जबरदस्त चुनाव प्रचार किया और खूब भीड़ जुटाई। लड़की हूं लड़ सकती हूं के नारे के साथ प्रियंका ने महिला वोटरों के एक अलग वोटबैंक को तैय़ार करने की कोशिश की। पार्टी ने 159 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। प्रियंका ने उत्तर प्रदेश में 160 चुनावी रैलियां कीं और करीब 40 रोड शो किए। लेकिन उनकी मेहनत कांग्रेस के किसी काम नहीं आई। कांग्रेस ने कुल 2 विधानसभा सीटें जीती और उसे अब तक के सबसे कम 2.3 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जबकि, 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 7 सीटें जीती थी और उसे कुल 6.25 प्रतिशत मल हासिल हुए थे। प्रियंका गांधी की रैलियों और चुनावी सभाओं में जिस  तरह से भीड़ जुट रही थी उसे देख कर अनुमान लगाया जा रहा था कि राज्य में कांग्रेस का जनाधार बढ़ेगा और पार्टी 2024 के लोकसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी।

क्या रहे कारण ?

समाज विज्ञानी राधारमण के अनुसार, हाल के चुनावों के देखते हुए  कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति अब दो धुरीय दिशा में बढ़ रही है। मतदाता अब वोट देते समय ये देखता है कि उसके वोट उसी पार्टी को पड़ें जो लड़ाई में हो। लड़ाई में दूसरे और तीसरे पायदान पर खड़ी पार्टी को वोट देकर वो अपने वोट को बर्बाद नहीं करना चाहता। वे मानते हैं कि उत्तर प्रदेश हो या पंजाब सभी जगह कुछ इसी तरह से वोट पड़े हैं और स्थापित पार्टियों के बदले उन पार्टियों या गठबंधनों को वोटरों का साथ मिला है जो लड़ाई में नजर आते थे। यूपी में कांग्रेस के प्रति लोगों की दिलचस्पी भले बढ़ी हो लेकिन जब तक वो पार्टी लड़ाई में दिखेगी नहीं उसे चाह करके भी वोट नहीं मिल पाएंगे। यही हाल बहुजन समाज पार्टी का रहा। मायावती ने बहुत कम चुनावी रैलियां कीं और वे लड़ाई के नेपथ्य में थीं। नतीजा आपके सामने है। कहा जा सकता है कि उन्हें सिर्फ जाटव समाज के वोट ही हासिल हो पाए।

फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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