मुंबई ( गणतंत्र भारत के लिए सुहासिनी ) : चीन से खबर आई है कि वहां रियल स्टेट डूबा पड़ा है। लोगों ने बैंकों की ईएमआई देनी बंद कर दी है। लोग सड़कों पर है और सरकार ने अब जाकर लोगों को राहत देने के लिए कदम उठाए हैं। चीनी जनता का आरोप है कि उसने बैंकों से कर्ज लेकर बिल्डर को दे दिया है और अब तक उसे बिल्डर ने मकान तो नहीं दिया लेकिन बैंकों की ईएमआई से उनका दिवाला निकला जा रहा है। जनता का आरोप है कि सरकार इस मामले में दखल दे और जनता को राहत पहुंचाने के लिए कदम उठाए।
इस खबर का जिक्र इसलिए किया जा रहा है क्योंकि भारत में भी ठीक ऐसे ही हालात है। दिल्ली- एनसीआर, वृहत्तर मुंबई, बेंगलुरू और तमाम बड़े शहरों में अपने फ्लैट की आस लिए लाखों लोग कई साल से बैंकों की ईएमआई तो भर रहे हैं लेकिन उनके फ्लैट का कुछ अतापता नहीं है।
दिल्ली-एनसीआर में लाखों फ्लैट बन रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार, अकेले नोएडा एक्सटेंशन एरिया में करीब सवा लाख फ्लैट बन रहे हैं। ऐसे फ्लैटों की लॉंचिंग से पहले उन्हें कई तरह की मंजूरी लेनी होती है, प्रशासनिक मंजूरी के साथ प्रोजेक्ट पर फाइनेंस के लिए बैंकों से भी मंजूरी ली जाती है। बैंक प्रोजेक्ट के तमाम कागजात और उसकी कानूनी स्थिति देखकर उस पर फाइनेंस करते हैं। बैंकों से फाइनेंस उपलब्ध होता है तो खरीदार का हौसला भी बढ़ जाता है। उसे लगता है कि बैंक ने सारे कागज देखकर ही फाइनेंस करने का फैसला किया होगा। लेकिन उसे पता नहीं होता कि वह एक बड़े दुष्चक्र का शिकार होने जा रहा है।
क्या है बैंक- बिल्डर दुष्चक्र
अमित एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान में काम करते हैं। उन्होंने करीब आठ साल पहले एक नामी बिल्डर के प्रोजेक्ट में ग्रेटर नोएडा में एक फ्लैट बुक कराया। बैंक से फाइनेंस भी मिल गय़ा। बिल्डर के वादे के अनुसार उसे तीन साल में तैयार करके फ्लैट को ग्राहक को देना था। शुरुवात में ही बिल्डर ने करीब 50 फीसदी पैसा ले लिया। बैंक से ईएमआई चालू हो गई। अमित इस दौरान किराए के मकान में रहते हुए ईएमआई भरते रहे। बीवी भी नौकरीपेशा थी इसलिए चीजें मैनेज हो जा रही थीं। लेकिन कुछ ही महीनों के बाद प्लॉट के लिए आवंटित जमीन पर अदालत ने निर्माण पर रोक लगा दी। निर्माण तो बंद हो गया लेकिन ग्राहक की जेब से ईएमआई जानी जारी रही। बिल्डर पहले ही ग्राहक से पैसे वसूल चुका, बैंकों की वसूली भी जारी हो गई। लेकिन न फ्लैट का पता न बिल्डर का।
क्या है खेल ?
सिद्धांत रूप में किसी भी प्रोजेक्ट के लिए जब बैंक फाइनेंस करते हैं तो सारे कागजात और मंजूरियों को देखने के बाद ही वे पैसा देने को तैयार होते हैं। ग्राहक को भी बैंकों से फाइनेंस उपलब्ध होने पर प्रोजेक्ट पर भरोसा बढ़ता है। लेकिन वास्तव में होता क्या है, ये भी समझना जरूरी है। होता ये है कि बिल्डर और बैंकों के बीच एक गठजोड़ होता है। खा-पीकर बैंक बिल्डर के दिखाए सब्जबाग को और झाड़ पर चढ़ाने का काम करता है। प्रोजेक्ट फंसा तो भी इन दोनों का कोई घाटा नहीं। ग्राहक से वसूली तो हो ही जाएगी। वो गुजर गया तो उसके को- एप्लाकेंट से वसूली कर लेंगे।
ऐसी भी खबरें मिलती हैं कि कई मामलों में तो बिल्डर बैंकों से पैसा लेने के बाद खुद ही पर्दे के पीछे से प्रोजेक्ट को कानूनी पचड़ों में उलझा देते हैं और उस पर स्टे करवा लेते हैं। ग्राहक बेचारा ईएमआई भरता रहता है।
बैंक जवाबदेह क्यों नहीं ?
सवाल यही है। कुछ वर्षों पहले केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद में इस मामले में बैंकों की जवाबदेही को तय करने की पहल की गई थी। तत्कालीन उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने इस मामले में विस्तृत ड्राफ्ट तैयार करने का आदेश भी अधिकारियों को दिया था। लेकिन समय के साथ सब ठंडे बस्ते में चला गया।
बैठक में इस बारे में जरूरी दिशा निर्देश तैयार करने की बात कही गई थी। सिद्धांत रूप में इस बात पर सहमति बनी थी कि जब बैंक भी बिल्डर के साथ किसी प्रोजेक्ट को अपनी सहमति देता है तो उस प्रोजेक्ट पर किसी तरह की कानूनी रोक की स्थिति में ग्राहक की ईएमआई भी उस दौर में रोक दी जाए और कानूनी स्थिति साफ होने का बाद ईएमआई फिर शुरू की जाए। कानूनी पचड़े की स्थिति में ग्राहक ही क्यों बोझ उठाए। ऐसा निर्देश देने के पीछे दो तरह की मंशा थी। पहली, ग्राहक पर ही सारा बोझ क्यों डाला जाए और दूसरा, बिल्डर के साथ बैंकों की जवाबदेही तय होने से बैंक भी अपने काम को संजीदगी से करेंगे वरना उनका पैसा भी फंसेगा। दागी बिल्डरों के प्रोजेक्ट पास होने में दिक्कत आएगी और बिल्डर भी सारी कानूनी मंजूरियों के बाद ही किसी प्रोजेक्ट में हाथ डालेगा।
जल्दी ही पीआईएल की तैयारी
उपभोक्ता मामलों पर सक्रिय एक निजी संस्था आस वेलफेयर फाउंडेशन और एक फ्लैट बायर एसोसिएशन ने मिलकर इस मामले को अदालत में ले जाने की तैयारी कर ली है। उनकी मांग है कि, बिल्डर प्रोजेक्ट अगर किसी अदालती पचड़े में फंसता है तो बैंकों को भी बिल्डर के बराबर जवाबदेह माना जाए और ग्राहकों को अदालती रोक की अवधि में ईएमआई भरने से राहत दी जाए।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया