नई दिल्ली / जयपुर (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र और सुहासिनी) : कर्नाटक के बाद अब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने अपनी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिय़ा है। गणतंत्र भारत, इस सिलसिले में राज्यवार जमीनी स्तर पर हालात का आंकलन कर रहा है और अगले कुछ दिनों में इन राज्यों में पार्टीवार स्थिति की समीक्षा रिपोर्ट पेश करेगा। आज चर्चा सिर्फ राजस्थान कांग्रेस की।
गणतंत्र भारत ने अपनी रिपोर्ट में बिंदुवार निम्न सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की। पहला, क्या राजस्थान में कर्नाटक जैसी राजनीतिक स्थिति यानी भिन्न-भिन्न पॉवर सेंटर हैं? दूसरा, क्या सचिन पायलट का असंतोष राज्य में कांग्रेस के लिए घातक है और वे पार्टी को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखते हैं ? तीसरा, आखिर पार्टी आलाकमान सचिन पायलट के खिलाफ कोई कदम क्यों नहीं उठा रहा या उठाना चाहता ?
अलग- अलग पॉवर सेंटर ?
गणतंत्र भारत ने राजस्थान के विभिन्न अंचलों में कांग्रेस की स्थिति और उसकी ताकत को आंकने का प्रयास किया। इस सिलसिले में सचिन पायलट की जन संघर्ष यात्रा और जयपुर में अपनी पार्टी की सरकार के खिलाफ उनके अनशन का भी विश्लेषण किया गया। कई राजनीतिक विशेषज्ञों और वरिष्ठ पत्रकारों से भी उनके अनुभवों और दृष्टिकोण को समझने का प्रयास किया गया।
गणतंत्र भारत के पास इस संबंध में संकलित तथ्यों के आंकलन में बहुत दिलचस्प और चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए।
ये सही है इस वक्त राजस्थान कांग्रेस में सत्ता के दो केंद्र हैं, एक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का और दूसरा सचिन पायलट का। लेकिन सत्ता के इन दोनों केंद्रों में जमीन आसमान का फर्क है। अशोक गहलोत का राजनीतिक कद सचिन पायलट के मुकाबले बहुत ऊंचा है। सता प्रबंधन और सत्ता की गणित में उनकी खोपड़ी का लोहा दिल्ली दरबार भी मानता है। अशोक गहलोत के पास पार्टी विधायकों में से अधिकतर का समर्थन है और कांग्रेस को समर्थन दे रहे अधिकतर विधायक भी गहलोत के साथ हैं। सचिन पायलट की स्थिति इस मामले में नाजुक है। उनके पास बमुश्किल 10-12 विधायकों का समर्थन है। वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र भारद्वाज कहते हैं कि, सचिन पायलट ने मानेसर में अपनी ताकत का चरम देख लिया, इसीलिए वे पार्टी से बाहर जाकर या उसे छोड़कर कुछ भी करने से बच रहे हैं। वे प्रदेश की थोड़ी बहुत सीटों पर असर रखते हैं लेकिन कांग्रेस पार्टी को इससे कोई नुकसान हो जाएगा ऐसा नहीं लगता। भारद्वाज मानते हैं कि सत्ता की राजनीति में हमेशा एक से अधिक केंद्र होते हैं लेकिन दूसरा प़वर सेंटर तब कहा जाना चाहिए जब दूसरे केंद्र के पास भी कुछ ताकत हो। यहां राजस्थान में अशोक गहलोत बहुत मजबूत स्थिति में है। पायलट की जनसंघर्ष यात्रा फ्ल़़ॉप रही। यात्रा में एक जाति विशेष के लोग ही नजर आए।
क्या पाय़लट का विरोध कांग्रेस के लिए घातक है ?
वरिष्ठ पत्रकार राजेश के प्रसाद मानते हैं कि, चुनावी साल में किसी भी पार्टी के लिए खेमेबंदी उसे नुकसान तो पहुंचाती ही है। राजस्थान भी अपवाद नहीं है। सचिन पायलट भी कुछ सीटों पर असर रखते हैं लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं। उन सीटों को कांग्रेस के खेमे में लाना उनकी राजनीतिक मजबूरी होगी। अगर वहां भी पार्टी को नुकसान होता है तो सचिन पायलट पार्टी से ज्यादा नुकसान खुद की राजनीतिक हैसियत के लिए करेंगे। जहां तक गहलोत का सवाल है उनकी राजनीतिक स्वीकार्यता बहुत ज्यादा है। कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर भी उनके समर्थकों की कमी नहीं। कई मौकों पर दिल्ली दरबार के लिए भी उन्होंने संकट मोचक का काम किया है लिहाजा उनके पर कतरना या उनके कद को घटाना फिलहाल तो संभव नहीं दिखता।
पार्टी आलाकमान की चुप्पी क्यों ?
सचिन पायलट ने पिछले दिनों अपनी पार्टी की सरकार यानी अशोक गहलोत की सरकार के खिलाफ वसुंधरा राजे के समय हुए भ्रष्टाचार के मामलों पर कार्रवाई न करने का आरोप लगाते हुए अनशन किया। हाल ही में उन्होंने अजमेर से जयपुर तक इन्हीं मांगों को लेकर जनसंघर्ष यात्रा निकाली और गहलोत सरकार को अल्टीमेटम भी दिया। सवाल ये है कि इतना सब कुछ होते हुए भी पार्टी आलाकमान अखिर सचिन पायलट की मांगों पर कान क्यों नहीं दे रहा ?
सचिन पायलट दावा चाहे जो करें लेकिन हकीकत उन्हें भी पता है और पार्टी आलाकमान को भी। सचिन पायलट जब अनशन पर बैठे थे तब भी पार्टी आलाकमान ने उनकी गतिविधि को अनुशासनहीनता मानते हुए उन्हें चेताया था लेकिन वे नहीं माने। जनसंघर्ष यात्रा के दौरान भी पार्टी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, सचिन पायलट ने अपनी हरकतों के कारण पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का विश्वास भी खो दिया है। पार्टी को पता है कि सचिन पायलट की राजनीतिक ताकत क्या है और इसीलिए पार्टी ने उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देना बेहतर समझा है। पायलट की इन गतिविधियों ने अब उनकी लड़ाई को पायलट बनाम पार्टी आलाकमान में बदल दिया है।
विश्वस्त सूत्रों के अनुसार, पिछले विधानसभा चुनावों के गणित को देखते हए भी पार्टी ने सचिन पायलट को ज्यादा तवज्जो नहीं देने का फैसला किया है। बताया जाता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में राजस्थान की कुल 200 विधानसभा सीटों के टिकट में से 80 पायलट के कहने पर, 80 अशोक गहलोत की संस्तुति पर और 40 आलाकमान की पसंद पर दिए गए। 80 में से पायलट के सिर्फ 16 उम्मीदवार चुनाव जीते जबकि अशोक गहलोत के 80 में से 64 और आलाकमान के 40 में से 20 उम्मीदवार चुनाव जीते। सचिन पायलट की उम्मीदों को इसी कारण झटका लगा और वे मुख्यमंत्री पद की रेस से बाहर हो गए।
आज भी हालात अलग कुछ नहीं हैं। आलाकमान ने इसीलिए राजस्थान की कहानी को फिलहाल ठंडे बस्ते में रखा है। शायद उसे सचिन पायलट की तरफ से ही किसी कदम का इंतजार है। पायलट के सामने दिक्कत ये है कि वे करें तो करें क्या ? बीजेपी में जा नहीं सकते। वहां उनसे बड़े कद के कम से कम चार नेता पहले से कतार में हैं। राजस्थान के चुनावी समीकरण को समझते हुए वे अलग पार्टी बनाने से भी बच रहे हैं क्योंकि इस राज्य में हमेशा से वर्चस्व टू पार्टी सिस्टम का ही रहा है। तीसरी पार्टी का यहां कोई वजूद रहा नहीं। यानी कुल मिलाकर सचिन पायलट के एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति है। देखना होगा कि वे इस स्थिति से खुद को कैसे सुरक्षित बाहर निकालते हैं।
फोटो सौजन्य-सोशल मीडिया