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हिंदी वालों के लिए आईएएस बनना कहीं दूर की कौड़ी न बन जाए….

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नई दिल्ली (गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र) : अभी कुछ दिनों पहले देश की प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे घोषित हुए। परीक्षा में टॉप करने वाली उत्तर प्रदेश की श्रुति शर्मा रहीं। श्रुति ने सिविल सेवा टॉप करने के बाद कहा कि वो पिछले साल कुछ नंबरों से चूक गई थी क्योंकि गलती से वे हिंदी माध्यम से परीक्षा में सम्मिलित हो गई थी। श्रुति का ये कहना वास्तव में सिविल सेवा में हिंदी की स्थिति कितनी चिंताजनक है इसे जाहिर करता है।

इस साल, संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा में कुल 685 उम्मीदवार सफल हुए। राजस्थान के रवि कुमार सिहाग 18वीं रैंक के साथ इस बार हिंदी मीडियम से परीक्षा देने वालों में टॉपर बने। 22वीं रैंक लाने वाले सुनील कुमार धनवंता हिंदी मीडियम के दूसरे टॉपर हैं। सात साल के बाद हिंदी माध्यम का कोई छात्र यूपीएससी पास करने वाले शीर्ष 25 उम्मीदवारों में जगह बना पाया है। इससे पहले सिविल सेवा की 2014 की परीक्षा में निशांत कुमार जैन 13वें स्थान पर रहे थे। 2020 और 2021 में तो हिंदी मीडियम का एक भी कैंडिडेट टॉप 100 में नहीं था और उसके पहले के तीन-चार सालों के हालात भी ऐसे ही थे।

हिंदी और यूपीएससी परीक्षा

वैसे तो यूपीएससी भाषाई आधार पर परीक्षा देने वालों का कोई अलग से आंकड़ा नहीं जारी करता लेकिन हिंदी मीडियम में यूपीएससी परीक्षा देने वालों की संख्या का अंदाज़ा यूपीएससी की वार्षिक रिपोर्ट और लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन  के आंकड़ों से जरूर मिल जाता है। अगर आंकड़ों को देखा जाए तो पता चलता है कि, सिविल सेवा परीक्षा में मेन्स का सिलेबस बदलने के पहले, टॉप 100 में हिंदी के 10-12 उम्मीदवार होते थे। नए सिलेबस पर 2013 में परीक्षा होने के बाद 2014 में जब परिणाम आया तो हिंदी मीडियम का जनरल कैटेगरी से एक भी कैंडिडेट आईएएस नहीं बन सका। उस बार हिंदी मीडियम का टॉपर 107 वीं रैंक पर था। 2014 की परीक्षा में हिंदी मीडियम के प्रदर्शन में सुधार दिखा और क़रीब पांच प्रतिशत कैंडिडेट इसमें सफल हुए। उस साल हिंदी मीडियम के टॉपर की रैंक 13वीं थी। लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2015 और 2016 की परीक्षा में हिंदी मीडियम वालों की सफलता दर लगभग 4-5 प्रतिशत रही  लेकिन 2017 और 2018 की परीक्षा में ये आंकड़ा फिर से 2-3 प्रतिशत के बीच गिर गया। 2015 में हिंदी मीडियम से मेन्स लिखने वालों की संख्या 2,439 थी जो 2019 में घटकर 571 और 2020 में 486 रह गई।

क्यों है ऐसी स्थिति ?

सिविल सेवा परीक्षा में सुधारों पर 2010 में  खन्ना समिति ने जो सिफारिशें दीं उसके बाद 2011 से प्रारंभिक परीक्षा का पुराना पैटर्न बदलकर दूसरे पेपर के रूप में सीसैट  को लाया गया। देश भर में इसका विरोध हुआ। 2014 में यूपीएससी ने बासवान समिति बनाई, जिसकी रिपोर्ट आने के बाद 2015 से इसे क्वालिफाइंग बना दिया गया।

दिल्ली में सिविल सेवा परीक्षा के लिए कई कोचिंगें चलती हैं और अधिकतर में हिंदी मीडियम के छात्रों की संख्या लगातार कम से कमतर होती जा रही है। वे मानते हैं कि हिंदी माध्यम से परीक्षा देना और सफल होना मुश्किल काम है। पहले तो हिंदी में मौलिक सामग्री ही उपलब्ध नहीं है। अंग्रेजी के नोट्स का ही हिंदी में अनुवाद होता है। अनुवाद की स्थिति इतनी खराब होती है कि एक ठेठ हिंदी वाले को भी उसे समझने में परेशानी हो जाए। यूपीएससी में इस बार चुने गए मध्य प्रदेश के एक आईएएस क्या कहते हैं ये भी समझने लायक हैं। उनका कहना है कि, एक या दो साल पहले सिविल सेवा परीक्षा में सिविल डिसोबिडिएंस मूवमेंट का अनुवाद असहयोग आंदोलन किया गया था। इंप्लीकेशन का अनुवाद उलझन, लैंड रिफ़ॉर्म का अनुवाद आर्थिक सुधार किया गया था। दिक्कत ये है कि निर्देश में लिखा होता है कि किसी ग़लती की सूरत में अंग्रेज़ी टेक्स्ट ही मान्य होगा। लेकिन, सवाल ये कि क्या यूपीएससी ऐसा डिसक्लेमर लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी से बच सकती है ?

सिविल सेवा परीक्षा के पैटर्न में बदलाव को भी हिंदी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है।। 2011 में सीसैट आने से पहले क़रीब चार से पांच हज़ार छात्र हिंदी मीडियम से मेन्स की परीक्षा देते थे  लेकिन 2015 में सीसैट की परीक्षा से अंग्रेज़ी के हटने के बाद भी ये आंकड़ा घटकर केवल पांच से छह सौ रह गया है।

एक और बड़ी वजह, हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी लिखने में सहूलित और तेजी को भी बताया जा रहा है। वैज्ञानिक दृष्टि से हिंदी में बहुत तेजी से लिखने वाले भी आमतैर पर 25-30 शब्द प्रति मिनट लिख पाते हैं जबकि अंग्रेजी में ये संख्य़ा बढ़कर 40-50 शब्दों की हो जाती है।

क्या सीसैट ही है असली वजह ?

विशेषज्ञ मानते हैं कि, सीसैट के नए पैटर्न से ह्यूमैनिटीज़ और आर्ट्स की पृष्ठभूमि वाले छात्रों के लिए परेशानी बढ़ गई है। जटिल अनुवाद, गणित और रीज़निंग के चलते क्वालिफ़ाइंग होते हुए प्रारंभिक परीक्षा हिंदी में देने वालों के लिए काफी कठिनाई होती है। और जब वे प्रारंभिक परीक्षा में ही क्वालीफाई नहीं कर पाएंगे तो मेन्स और सेलेक्शन तो  दूर की बात है।

 फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया

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