नई दिल्ली / जयपुर ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र ) : पिछले जो दिनों में आत्महत्या की दो घटनाएं झकझोरने वाली थीं। राजस्थान के कोचिंग सिटी कोटा में बुधवार को नीट की तैयारी कर रही 19 साल की एक बेटी राशि ने आत्महत्या कर ली। इधर, दिल्ली में हिंदू कॉलेज के एक पूर्व एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर समरवीर सिंह ने भी खुद की जान ले ली। ये दोनों मामले देखने में अलग-अलग हैं लेकिन इनके मूल कारणों में वजह एक ही है। दोनों ही जबरदस्त मानसिक दबाव और तनाव के दौर से गुजर रहे थे। उनकी खुद की परेशानियां तो अपनी जगह थी हीं लेकिन उससे ज्यादा वे जिंदगी में सब कुछ खो बैठने की मानसिक स्थिति से जूझ रहे थे।
समरवीर का मामला तो बहुत ही संगीन है और ये मौजूदा समय में देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था की कलई भी खोलता है। समरवीर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में दर्शन शास्त्र के तदर्थ सहायक प्रोफेसर थे। वे पिछले 7-8 सालों से क़ॉलेज में पढ़ा रहे थे। पिछले दिनों कॉलेज ने स्थायी नियुक्ति के लिए इंटरव्यू किया और कुछ मिनटों के इंटरव्यू के बाद समरवीर को चलता कर दिया गया। उनका चयन नहीं हुआ और उनका तदर्थ सहायक प्रोफेसर का पद भी चला गया।
समरवीर इससे टूट गए। उन्होंने आत्महत्या कर ली। लेकिन उनकी मौत ने एक साथ कई सवालों को सतह पर ला दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर आभा देव हबीब के अनुसार, ‘अगर इस तरह से दिल्ली विश्वविद्यालय में होता रहा तो इससे युनिवर्सिटी का नाम बहुत खराब होगा। वर्षों तक कोई शिक्षक कोई विषय छात्रों को पढ़ा रहा है। यानी सब कुछ मानकों के हिसाब से है फिर ऐसा क्या होता है कि वो एकदम से नाकाबिल हो जाता है।’
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की पूर्व अध्यक्ष नंदिता नारायण ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार से बातचीत में कहा कि, ‘अस्थायी टीचरों के साथ इस तरह का व्यवहार उचित नहीं है। कई बार विभाग उनके समायोजन की कोशिश करता है लेकिन क्योंकि इंटरव्यू में बाहरी एक्सपर्ट भी होते हैं इसलिए उनका शैक्षिक अनुभव गौण हो जाता है। आज तो हालात ये हैं कि लोगों की नियुक्ति बिना उनके शिक्षण अनुभव को देखे की जा रही है।’
आत्महत्या की इस घटना के खिलाफ शिक्षक संघों के अलावा विभिन्न छात्र संगठनों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों में प्रदर्शन किया और पूरे मामले की जांच कराने की मांग की। दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलसचिव विकास गुप्ता ने स्पष्टीकरण देते हुए बताया कि, ‘समरवीर ने जब आत्महत्या की उस वक्त वे कॉलेज में एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नहीं थे। वे पहले थे लेकिन स्थायी नियुक्ति के लिए चयन प्रक्रिया में वे नहीं चुने गए।’
दरअसल सवाल ही यही है। समरवीर अकेले ऐसे टीचर नहीं हैं जिनके साथ ऐसा हुआ है। ऐसे ढेरों शिक्षक हैं। जमिया मिल्लिया इस्लामिया के एक असिस्टेंट प्रोफेसर कई सालों तक तदर्थ शिक्षक के रूप में पढ़ाते रहे लेकिन स्थायी नियुक्ति के समय बाहर से आदमी आ गया। उस संस्थान में उनके वर्षों के शैक्षिक अनुभव को दरकिनार कर दिया गया।
ऐसा क्या होता है, क्या ये शिक्षक योग्य नहीं, अगर योग्य नहीं ते सालों-साल उनसे पढ़वा कर छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ क्यों किया जाता है ? अगर वे योग्य हैं तो उन्हें चयन प्रक्रिया में वरीयता क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? ऐसे सवाल और भी हैं। शिक्षक संघ से जुड़े एक प्रोफेसर तो दबी जबान से यहां तक कहते हैं कि, आजकल नियुक्ति में योग्यता और अनुभव जैसे सवाल कोई मायने नहीं रख रहे। बस आपका जुगाड़ चाहिए। एक खास तरह की विचारधार भी आजकल काफी अहमियत रखती है।
वे बताते हैं कि, पहले को सालों-साल स्थायी नियुक्तियां नहीं की जातीं। कम तन्ख्वाह पर ठेके पर शिक्षकों को रखा जाता है। तनख्वाह भी कई बार महीनों में आती है। फिर जब दबाव बढ़ता है तो फिर ये हरकतें होती हैं। वे बताते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय में कई विभाग ऐसे हैं जहां शिक्षकों की बहुसंख्या तदर्थ शिक्षकों की है।
आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि राज्यसभा में शिक्षा राज्यमंत्री ने सुभास सरकार ने एक सवाल के जवाब में जानकारी दी थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के 68 कॉलेजों में पिछले वर्ष 31 जनवरी तक 4267 तदर्थ शिक्षक थे। इनमें सबसे ज्यादा 137 रामजस कॉलेज में, उसके बाद वेंकटेश्वर कॉलेज में 131 और हिंदू कॉलेज में 62 तदर्थ शिक्षक थे।
समरवीर तो मौत की नींद सो गए, लेकिन वे अपने पीछे कई अनुत्तरित सवालों को छोड़ गए। अगर वर्षों की तपस्या भी उनके अनिश्चय और असुरक्षा की भावना को दूर नहीं कर पाई तो ये ये मानना होगा कि कहीं न कहीं कोई कोई खोट है जो इस तरह की घटनाओं की वजह बनता है। समरवीर की मौत से जुड़े सवालों को बहुत संजीदगी से लेने की जरूरत है ताकि बहुत से दूसरे समरवीरों की परणति वो न हो जो इनकी हुई।
फोटो सौजन्य- सोशल मीडिया