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क्यों खारिज हो जाता है कोर्ट में राजद्रोह, जरूरी है कानून की पुनर्व्याख्या

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नई दिल्ली ( गणतंत्र भारत के लिए आशीष मिश्र): खामी कानून में नहीं कानून की मनमानी व्याख्या में हैं। भारतीय दड संहिता की धारा 124 ए को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह के फैसले सुनाए हैं उनसे ये साफ हो गया है कि इस धारा का इस्तेमाल हर सरकार ने उनके खिलाफ उठने वाली आवाजों के लिए ज्यादा किया है और राजद्रोह का हवाला देकर पुलिस और कानून का बेजा इस्तेमाल किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि इस धारा के इस्तेमाल से प्रेस की स्वतंत्रता पर पड़ने वाले असर के मद्देनज़र भी इसकी व्याख्या की ज़रुरत है।

कई बार ऐसे सवाल उठते रहे हैं कि देश में तमाम कानून ऐसे हैं जो अब बेमानी हो चुके हैं और उन्हें बदले जाने या संशोधित किए जाने की जरूरत है। बहुत से कानूनों में संशोधन हुआ या फिर उनकी जगह नए कानून लाए गए। नरेंद्र मोदी की सरकार ने ऐसे कानूनों की सूची बनाकर उन्हें संशोधित करने या फिर रद्द करने की पहल पिछले दिनों की थी। लेकिन बात कहां तक पहुंची ये अज्ञात है।

राजद्रोह के ताजा मामले

सुप्रीम कोर्ट ने 3 जून को जाने माने पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में राजद्रोह सहित विभिन्न धाराओं में दर्ज एक मामले को रद्द कर दिया। मामला बीजेपी के एक स्थानीय नेता ने उनके य़ूट्यूब चैनल पर प्रसारित एक शो पर आपत्ति को लेकर था। इस शो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वोट के लिए आतंकी हमले कराने का आरोप लगाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रत्येक पत्रकार केदार नाथ सिंह के फ़ैसले के तहत सुरक्षा का हकदार है जिसमें धारा 124 ए के तहत राजद्रोह के अपराध के दायरे को परिभाषित किया गया है।

इससे पहले, 14 मई को आंध्र प्रदेश पुलिस ने तेलुगू न्यूज़ चैनलों – टीवी- 5 और एबीएन न्यूज़ के खिलाफ भी राजद्रोह का मुकदमा दायर किया था। इन चैनलों पर आरोप था कि इन पर प्रसारित कार्यक्रमों मे लोकसभा सांसद रघुराम कृष्णन राजू ने राज्य सरकार और मुख्यमंत्री वाई एस जगनमोहन रेड्डी की आलोचना की थी। इस मामले में सांसद समेत दोनों चैनलों को आरोपी बनाया गया था।      

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपने आदेश कहा कि उसके विचार में भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 124 ए, 153 ए और 505 के प्रावधानों के दायरे और मापदंडों की व्याख्या की आवश्यकता है। ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के समाचार और सूचना पहुंचाने के सन्दर्भ में। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस व्याख्या का हिस्सा वे समाचार या सूचनाएं भी होंगी जिनमे देश के किसी भी हिस्से में प्रचलित शासन की आलोचना की गई हो।

इन मामलों से पहले भी पिछले कुछ महीनों में पत्रकारों पर राजद्रोह के मामले दर्ज किए जाते रहे हैं। इसी साल जनवरी में नोएडा पुलिस ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित छह पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया था। ये मामला एक शिकायत पर दर्ज किया गया था जिसमें आरोप लगाया था कि इन लोगों के सोशल मीडिया पोस्ट्स और डिजिटल प्रसारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा के लिए ज़िम्मेदार थे।

अक्टूबर 2020 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और तीन अन्य लोगों पर राजद्रोह सहित विभिन्न आरोपों में मामला दर्ज किया। कप्पन एक सामूहिक बलात्कार मामले की रिपोर्ट करने के लिए हाथरस जा रहे थे। कप्पन अभी भी मथुरा जेल में बंद हैं। मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम के ख़िलाफ़ एक सोशल मीडिया पोस्ट की वजह से राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया। वांगखेम को 2018 में भी राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। बाद में उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत आरएसएस, मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ टिप्पणी करने के लिए गिरफ़्तार किया गया था। मणिपुर हाईकोर्ट  ने अप्रैल 2019 में उनके ख़िलाफ़ आरोपों को ख़ारिज करते हुए उन्हें जेल से रिहा कर दिया था।

राजद्रोह क़ानून की सुप्रीम व्याख्या और लॉ कमीशन का परामर्श

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या भड़काने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वो राजद्रोह का आरोपी है। राजद्रोह एक ग़ैर-जमानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना है।

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक सीमित होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फ़ैसले में आईपीसी के तहत राजद्रोह क़ानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसके दायरे को भी परिभाषित किया था। अदालत ने कहा था कि धारा 124ए केवल उन शब्दों को दंडित करती है जो क़ानून और व्यवस्था को बिगाड़ने की मंशा या प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं या जो हिंसा को भड़काते हैं। तब से राजद्रोह के मामलों में संविधान पीठ की इस व्याख्या को एक नजीर के रूप में लिया जाता रहा है।

साल 2018 में राजद्रोह से जुड़ी धारा 124 ए के बारे में लॉ कमीशन ने भी एक परामर्श पत्र जारी किया। पत्र में लॉ कमीशन ने बहुत कुछ सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के तर्ज पर ही अपनी संस्तुतियां दी। कमीशन ने कहा कि देश से प्रेम दिखाने का हर व्यक्ति का तरीका अलग हो सकता है और उसे इसका पूरा अधिकार है। सरकार या नीतियों की आलोचना को राजद्रोह नहीं माना जा सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता।

राजद्रोह के मामले और अदालती फैसले

पिछले कुछ सालों के आंकड़ों को देखें तो जाहिर होगा कि सरकारों ने राजद्रोह के कानूनो का जमकर इस्तेमाल किया है। ये बात अलग है कि ऐसे मामले अदालतों में नहीं टिक पाए और कुछेक को छोड़ कर सारे के सारे मामले खारिज कर दिए गए। ये भी देखा गया है कि  राजद्रोह के मामलों में एकाएक बढोतरी  पिछले पांच सालों में देखने को मिली है।। साल 2017 में तो 228 लोगों के खिलाफ राजद्रोह के मामले दर्ज कर दिए थे और मात्र 4 लोगों पर ही दोषसिद्ध किया जा सका।  

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार :

2019 में देश में 93 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। 76 आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट हुई। केवल दो मामलों मे अदालत ने दोष सिद्ध पाया।

2018 में 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। 46 के ख़िलाफ़ चार्जशीट हुई और उनमें से केवल 2 लोगों को अदालत ने दोषी माना।

2017 में 228 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। 160 के ख़िलाफ़ चार्जशीट  हुई और मात्र 4 लोगों को अदालत ने दोषी माना।

2016 में 48 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। 26 के ख़िलाफ़ चार्जशीट  हुई और केवल 1 आरोपी को ही अदालत ने दोषी माना।

2015 में इस क़ानून के तहत 73 गिरफ़्तारियां हुईं। 13 के ख़िलाफ़ चार्जशीट हुई। इनमें से एक को भी अदालत में दोषी नहीं साबित किया जा सका।

2014 में 58 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। 16 के ख़िलाफ़ चार्जशीट  हुई और केवल 1 को अदालत ने दोषी माना।

कानून का खात्मा नहीं, लेकिन इसके बेजा इस्तेमाल पर नियंत्रण जरूरी

लॉ कमीशन ने अपने परामर्श में एक दशक पहले खत्म किए राजद्रोह कानून का जिक्र किया है। इस कानून को खत्म करते समय दलील दी गई थी कि कोई भी लोकतांत्रिक देश इस तरह के कानूनों को जिंदा रखने का दोष अपने सिर कैसे ले सकता है। भारत में इस कानून के खात्मे पर बहस चली। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की  टिप्पणियों से लेकर कानूनविदों की राय तक सभी से प्रतिध्वनि यही निकली कि जरूरी कानून को खत्म करना नहीं बल्कि उसे सही परिप्रेक्ष्य में लेना है। अगर सरकारें अपने फायदे के लिए कानूनों का मनमाफिक इस्तेमाल करने लगेंगी तो कोई भी कानून बना दीजिए सब बेकार साबित होंगे। सरकार ने भी साफ किया है कि वो इस कानून को खत्म करने पर विचार नहीं कर रही।

इससे कैसे बचा जाए ?

विशेषज्ञ मानते हैं कि राजद्रोह जैसे संगीन आरोप की धाराओँ को लगाते समय गहन छानबीन और पड़ताल होनी चाहिए और अदालतों में अगर ऐसे मामले फर्जी सिद्ध पाए जाते हैं तो पुलिस पर ही कठोर कारर्वाई की जानी चाहिए। सुझाव ये भी दिया गया कि बेहतर हो कि राजद्रोह जैसे आरोपों को लगाने की संस्तुति पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों की एक समित करे और उन पर सुनवाई के लिए फास्टट्रैक कोर्ट बनाया जाए।    

फोटो सौजन्य – सोशल मीडिया

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