देहरादून ( गणतंत्र भारत के लिए, सिटीजन जर्नलिस्ट रम्या) : गोपाल सिंह उत्तराखंड में कभी टिहरी के पास बसे अपने गांव को आज सिर्फ इशारों से समझा सकते हैं। पिछले साल जहां उनका गांव आबाद हुआ करता था आज वहां सिर्फ मलबे और धूल का ढेर है। उनके गांव के पास एक हाइड्रो पावर परियोजना पर काम हो रहा है और उनका गांव उस परियोजना पर चल रहे काम के कारण निकले मलबे के नीचे कहीं गुम हो चुका है। गोपाल सिंह व्यथित हैं, कहते हैं कि, ये कैसा विकास है जिसमें दूसरों को बिजली देनी है तो किसी को बर्बाद करना जरूरी है।
गोपाल का परिवार उन 250 से ज्यादा परिवारों में से एक है जिन्होंने अलकानंदा नदी पर 444 मेगावॉट की पनबिजली परियोजना के लिए अपने सिर की छत खोई है। विश्व बैंक की मदद से उत्तराखंड में दर्जनों पनबिजली परियोजनाओं पर काम हो रहा है। कुछ तो पूरी हो चुकी हैं।
स्वच्छ ऊर्जा के लिए जरूरी
भारत सरकार हमेशा से मानती रही है कि स्वच्छ ऊर्जा की दृष्टि से सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के साथ ही पनबिजली भारत के लिए बहुत जरूरी है। सरकार ने 2030 तक भारत की कुल ऊर्जा जरूरतों का आधा हिस्सा गैरजीवाश्म ईंधन के स्रोतों से हासिल करने की शपथ ली है।
पृथ्वी के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने के तरीके ढूंढने में जुटे देशों को पनबिजली के समर्थक बताते हैं कि ये भारी मात्रा में स्वच्छ बिजली मुहैया करा सकती है। इसके साथ ही मौसम पर निर्भर सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा से मांग पूरी नहीं होने की हालत में भी इससे ऊर्जा हासिल हो सकती है।
जून 2021 की एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी आईईए ने पनबिजली को स्वच्छ ऊर्जा के भूले बिसरे देव कहा और देशों से आग्रह किया कि वे शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने की कोशिश में इसे अपने ऊर्जा स्रोत के रूप में शामिल करें।
भारत में फिलहाल 46 गीगावाट क्षमता की पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ये देश की क्षमता का महज एक तिहाई है। क्षमता बढ़ाने के लिए 2019 में सरकार ने आधिकारिक तौर पर 25 मेगावाट से ऊपर की पनबिजली परियोजनाओं को अक्षय ऊर्जा स्रोत घोषित कर दिया। इस घोषणा के साथ ही बिजली कंपनियों के लिए पनबिजली को उनकी सप्लाई में शामिल करना जरूरी बना दिया गया। पहले केवल छोटे पनबिजली संयंत्रों की ही अक्षय ऊर्जा स्रोतों में शामिल किया जाता था।
आईआईटी रुड़की में पनबिजली और अक्षय ऊर्जा विषय़ के प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि भारत के पनबिजली क्षेत्र को बढ़ाना केवल बिजली पैदा करना नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा आगे की बात है। वे कहते हैं कि बड़ी परियोजनाएं उस क्षेत्र के लिए नौकरियां, बिजली, सड़क और दूसरी बुनिय़ादी जरूरतों को ला सकती हैं जिससे इलाके का जीवन स्तर बेहतर हो सकता है।
विरोध के अपने तर्क
तमाम हरित समूह और पनबिजली परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले समुदायों का कहना है कि पनबिजली परियोजनाओं के कारण पर्यावरण और समाज को जो कीमत चुकानी पड़ रही है उसे उचित नहीं कहा जा सकता। कुछ पर्यावरणवादी कहते हैं कि ये फायदे से ज्यादा नुकसान करता है। पनबिजली की परियोजनाएं जंगलों की कटाई करवाती हैं। नदियों का रुख बदलती हैं। भूजल को रिचार्ज करने की गति को धीमा या फिर रोक सकती हैं। इन सब का आसपास के समुदायों पर बुरा असर होता है। पर्यावरणवादी मानते हैं कि इसके नतीजे में मौसम के तेवर विनाशकारी हो सकते हैं। उत्तराखंड के कॉलेज ऑफ फोरेस्ट्री में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने वाले एस पी सती 2013 के विनाशकारी बाढ़ की ओर इशारा करते हैं जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 6,000 लोगों की जान गई थी।
सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त एक कमेटी ने भी रिपोर्ट दी थी कि पनबिजली परियोजनाएं बाढ़ से होने वाले नुकसान को कई गुना बढ़ा देती हैं क्योंकि तेजी से नीचे आते पानी के साथ बड़ी चट्टानें, तलछट और रेत नीचे की धारा में जा कर मिलते हैं और निचले इलाके में रहने वालों के विनाश की वजह बन जाते हैं। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस ओर भी ध्यान दिलाया था कि संयंत्र के निर्माण के दौरान खुदाई और विस्फोटकों का इस्तेमाल भूस्खलन या ढलानों के ढह जाने का भी कारण बन सकता है।
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